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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग
न ठहरना, न रुकना - यह सबसे बड़ी समस्या है। आदमी बहुत दौड़ता है, बहुत दौड़ता है । अतीत पीछा किए हुए है। अतीत से बड़ा कोई भूत क्या होगा ? उसने आदमी को ऐसे पकड़ रखा है कि कोई अर्थ ही नहीं । इतनी अर्थहीन बातें आती हैं कि कभी आदमी नाराज हो जाता है, कभी राजी हो जाता है, कभी घबरा जाता है और कभी आकाशीय उड़ानें लगाने लग जाता है। यह अतीत की जकड़न है । भविष्य की कल्पना ने आदमी को जकड़ रखा है, बांध रखा है। वर्तमान के चिन्तन ने भी उसके चारों ओर बन्धन बिछा रखे हैं ।
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निर्विकल्प अवस्था में आदमी काल की पकड़ से मुल हो जाता है। वहां कालातीत हो जाता है । वह देशातीत अवस्था में पहुंच जाता है। देश का भी उसे भान नहीं रहता । जब निर्विकल्प अवस्था आती है तो यह पता ही नहीं रहता कि मैं कहां हूं | देशातीत स्थिति बन जाती है । निर्विकल्प अवस्था में व्यक्तित्व का भी भान नहीं रहता । यह भी पता नहीं रहता कि मैं कौन हूं। जब विचार ही नहीं तो फिर पता कैसे रहे । विचार से पहचान बनाई हुई है कि मेरा यह नाम है, यह जाति है । वास्तव में तो
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नहीं । बच्चा जन्मा, तब न नाम लेकर आया, न जाति लेकर आया, इच्छा भी लेकर नहीं आया। ये तो हमने आरोपित कर दिए। कायोत्सर्ग में यह पहचान भी समाप्त हो जाती है। केवल बचता है अस्तित्व और कुछ नहीं बचता ।
7. जरूरत है जागरूक प्रयत्न की
इस निर्विकल्प अवस्था का अभ्यास करना है। हम कुछ क्षण निर्विचार रहें, निर्विकल्प रहें। इस अभ्यास से एक प्रकार से मस्तिष्क की धुलाई शुरू हो जाती है। ब्रेन वाशिंग का क्रम शुरू हो जाता है। यह मस्तिष्कीय धुलाई व्यक्ति को आगे बढ़ा देती है। जब पांच मिनट या दस मिनट तक इस अवस्था का अभ्यास कर लें, फिर नया मोड़ लें कि दस मिनट निर्विकल्प रहें। फिर दस मिनट प्रयोग करें निषेधात्मक विचारों को खोजने का कि दिमाग में कहां-कहां निषेधात्मक भाव और विचार भरे पड़े हैं, संचित हैं। उन्हें खोजने का प्रयास करें। उन्हें टटोलें, खोजें । यह क्रम दस मिनट तक चले । दस मिनट तक विधायक भावों, विधायक विचारों को दोहराते रहें । यह 40 मिनट के प्रशिक्षण का क्रम बन गया। एक प्रयोगात्मक पाठ बन गया । चालीस मिनट का यह प्रयोग अहिंसा के प्रशिक्षण का पहला प्रयोग बन जाएगा । निर्विचार अवस्था, निषेधात्मक भावों को बाहर निकालने का उपक्रम, विधायक भावों को स्थापित करने का प्रयत्न और विधायक भावों के स्थिरीकरण के लिए उनकी अनुप्रेक्षा या पुनरावर्तन - यह क्रम चलता है तो अहिंसक व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। इसके बिना केवल उपदेश, अहिंसा कल्याणकारी है, अहिंसा के बिना समाज गड़बड़ा रहा है, यह कोरा उपदेश, कोरा चिन्तन और कोरी चर्चा सारहीन ही होगी। एक जागरूक प्रयत्न की आवश्यकता है।
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