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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग साम्यवादी प्रणाली विकसित हो गई। कोई भी व्यक्ति आवश्यकता से मुक्त नहीं हो सकता। कोई भी शरीरधारी प्राणी आवश्यकता विहीन नहीं हो सकता। उपार्जन और स्वामित्व
आर्थिक जीवन का तीसरा पहलू है- उपार्जनवृत्ति । मनोविज्ञान ने कुछ मौलिक मनोवृत्तियां मानी हैं। उनमें एक है- उपार्जनवृत्ति । मनुष्य में उपार्जन करने की वृत्ति होती है। मनुष्य में ही नहीं, प्रत्येक प्राणी में यह वृत्ति उपलब्ध है। वह प्रकृति से ही उपार्जन करता है।
इस मौलिक मनोवृत्ति का संवेग है- स्वामित्व की भावना, अधिकार की भावना। प्राणी केवल उपार्जन ही नहीं करता किन्तु उस परं अपना स्वामित्व जताता है, अधिकार करता है। आर्थिक जीवन का चौथा पहलू है- स्वामित्व की भावना। भोग : परिग्रह का फल
आर्थिक जीवन का पांचवां पहलू है- भोग। आर्थिक जीवन के साथ भोग की बात जुड़ी हुई है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में एक रूपक के माध्यम से परिग्रह का वर्णन किया गया है। पूछा गया, परिग्रह का जो एक पेड़ है, उसका फल क्या है ? उत्तर दिया गया- काम-भोग उसके पुष्प-फल हैं । यदि भोग की बात न हो, भोग की आसक्ति न हो तो आर्थिक जीवन बदल जाए। भोगासक्ति के कारण आर्थिक जीवन और अधिक जटिल बन जाता है। आर्थिक जीवन का एक पहलू : शोषण
___ आर्थिक जीवन का छठा पहलू है- शोषण । मनुष्य अधिक पाने का प्रयत्न करता है, इसलिए वह दूसरे का शोषण करता है। अधिक पाना है तो दूसरे का शोषण करना ही होगा। कहा जाता है- व्यक्ति न्यायोचित तरीके से कमाए, अपनी जीविका चलाए, दूसरे का शोषण न करे। जैन आगमों में कहा गया है- एक त्यागी आदमी धर्म के द्वारा अपनी जीविका का संचालन करता है। नीतिशास्त्र का शब्द है- 'न्याय'
और धर्मशास्त्र का शब्द है- 'धम्मेण वित्तिं कप्पेमाणा।' जहां न्यायोचित तरीके से या धर्म की दृष्टि से उपार्जन की बात छूट जाती है, वहां शोषण पनपता है। कर्मवाद : एक अवधारणा
हिन्दुस्तान में एक आम धारणा है कि गरीब आदमी अपने कर्म से गरीब बनता है और अमीर आदमी अपने कर्म से अमीर बनता है। जिसने अच्छा कर्म किया है, वह धनवान बनता है, अमीर बनता है, जिसने बुरा कर्म किया है, वह धनहीन बनता है, गरीब बनता है। इस धारणा ने आर्थिक समस्या को अधिक जटिल बनाया है। इससे आर्थिक समस्या उलझी है। एक आदमी कमाता चला जाता है। वह सोचता है- मैंने अच्छे कर्म किए हैं, अच्छा कार्य किया है इसलिए अच्छा पैसा मिल रहा है। इस भावना के आधार पर वह निरपेक्ष हो जाता है, समाज की अपेक्षा नहीं रखता।
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