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अहिंसा और शान्ति
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मानसिक संघर्ष तो नहीं होता। जो व्यक्ति यह जानता है कि यह करना बुरा है फिर भी करता है और करने के बाद भी यह सोचता है कि ऐसा नहीं करना चाहिए था, बहुत बुरा हुआ। यह अन्तर्द्वन्द्व भावनात्मक स्वास्थ्य को बहुत बिगाड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति के सामने प्रश्न है-इस मानसिक संघर्ष को कैसे मिटाए ? इस अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति को कैसे समाप्त करे ? इसके लिए उपायों की खोज जरूरी है। भावक्रिया का, जागरूकता का, वर्तमान में जीने का जो सूत्र है, वह भावनात्मक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र है। एक जीवन है अतीत का और एक जीवन है वर्तमान का। एक हमारे साथ आ चुका और एक आ रहा होगा। अनागत अभी आया नहीं। हमारे जीवन के तीन प्रकार बन गए-अतीत का जीवन, वर्तमान का जीवन और भविष्य का जीवन। अतीत का जीवन भावनात्मक स्वास्थ्य की दृष्टि से कैसा रहा, यह तो नहीं कहा जा सकता। आगे उसका परिणाम भुगतना है, किन्तु वर्तमान में भी अगर व्यक्ति जागरूक बन जाता है तो समस्या से छुटकारा पा सकता है। यद्यपि एक सीधा संघर्ष है अतीत और वर्तमान में।हर व्यक्ति कहता है यह वही तो है जिसने ऐसा किया था। अतीत का जीवन वर्तमान पर हावी रहता है, अतीत का जीवन वर्तमान का साक्षी रहता है और सामाजिक जीवन में अतीत की छाप ज्यादा होती है। वर्तमान की छाप उसके सामने धुंधला जाती है।
परिवार नियोजन का अधिकारी प्रचार करने एक गांव में गया। गांव के लोगों ने उसकी स्थिति का पता लगा लिया। यह अधिकारी कौन है? इसकी क्या स्थिति है ? इसका परिवार कितना है ? उसने बहुत प्रचार किया दो से ज्यादा नहीं। बहुत प्रचार किया। उस अधिकारी के 10 बच्चे हैं, यह जानकर लोगों को बड़ा ताज्जुब हुआ। एक व्यक्ति बोल उठा-महाशय ! परिवार नियोजन का प्रचार करते हैं और आपके 10 बच्चे हैं। अधिकारी बोला-भाई ! क्षमा करें। मैं पहले विकास विभाग में था और वहां से इस विभाग में आया हूं।
वर्तमान पर अतीत हावी रहता है। हम वर्तमान में देखते हैं किन्तु अतीत से हटकर नहीं देखते । सामाजिक परिवेश में या सामुदायिक जीवन में वर्तमान बाद में सामने आता है, अतीत पहले ही बोल उठता है। इसलिए हम अतीत को बिलकुल अस्वीकार भी नहीं कर सकते। अध्यात्म के क्षेत्र में स्थिति बिलकुल बदल जाती है। अध्यात्म के मूल्य और मानदण्ड बिलकुल बदले हुए होते हैं। अगर हम वाल्मिकी को डाकू की दृष्टि से ही देखें तो यह सामाजिक परिवेश हो सकता है, अध्यात्म की भूमिका बिलकुल नहीं हो सकती। अध्यात्म की भूमिका में आज यदि डाकू संत बन गया तो वह संत ही है, डाकू था ही नहीं ।
अर्जुनमालाकार, जो प्रतिदिन सात व्यक्तियों की हत्या करते थे, एक ही क्षण में मुनि बन गए। वे उसी राजगृही नगर में जब भिक्षा के लिए जाते तो लोग
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