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अहिंसा और निःशस्त्रीकरण संयम कर सकता है। वास्तविक आवश्यकता और कृत्रिम आवश्यकता को समझना जरूरी है। प्राकृतिक चिकित्सा में दो प्रकार की भूख मानी जाती है-प्राकृतिक भूख और कृत्रिम भूख। प्राकृतिक भूख सहज लगने वाली भूख है। भस्मक रोग को कृत्रिम भूख माना गया है। जो व्यक्ति भस्मक रोग से ग्रस्त होता है, उसकी भूख दिन में सौ-सौ रोटियां खाने पर भी नहीं मिटती। इस कृत्रिम भूख-भस्मक व्याधि का कभी अन्त नहीं आता। वह व्यक्ति एवं समाज के लिए समस्या बन जाती है। अर्थशास्त्र का सूत्र
- आज के समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों ने कृत्रिम भूख को बढ़ाकर पूरे मानव समाज को संकट में डाल दिया। अर्थशास्त्र का सूत्र है-इच्छा को बढ़ाते चले जाओ। आज इस गलत सूत्र के परिणाम स्वरूप हिंसा बढ़ रही है, पर्यावरण का संतुलन विनष्ट हो रहा है । आवश्यकता की पूर्ति करना जरूरी है, इस बात को उचित माना जा सकता है, किन्तु कृत्रिम आवश्यकताओं को पैदा करना और उनकी पूर्ति करते चले जाना युक्ति-संगत नहीं है- आवश्यकता की उत्पत्ति और उसकी पूर्ति का एक चक्र है। उस चक्र का कहीं अन्त नहीं होता। इस सचाई से साधारण लोग भी परिचित रहे हैं। राजस्थानी का प्रसिद्ध दोहा है
तन की तृष्णा तनिक है, तीन पाव के सेर।
मन की तष्णा अमित है, गिलै मेर का मेर॥ प्रश्न आवश्यकता का
__ वर्तमान जगत् में जिस सचाई का प्रतिपादन किया जा रहा है, उससे यह सचाई भिन्न है। आवश्यकता की पूर्ति को अनुचित नहीं माना जा सकता, किन्तु प्रश्न है-मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं कितनी हैं ? वे बहुत सीमित हैं। यदि आवश्यकता के आधार पर चला जाता तो दुनिया के सामने पर्यावरण का संकट पैदा नहीं होता, पर्यावरण की समस्या से विश्व संत्रस्त नहीं होता। व्यक्ति ने तन की तृष्णा के स्थान पर मन की तृष्णा को बिठा दिया। जब तन की तृष्णा जाग जाती है तब आवश्यकताएं बढ़ती चली जाती हैं। तृष्णा और इच्छा का कोई अन्त नहीं है, कोई सीमा नहीं है। महावीर ने कहा-"इच्छा हु आगाससमा अंणतिया"-इच्छा आकाश के समान अनंत है। जब इच्छा अनंत और असीम बन जाती है तब विनाश अवश्यंभावी बन जाता है। विराम कहां होगा
___ आज विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है। इसका कारण है अर्थशास्त्र का अनसोचा-अनसमझा सिद्धान्त । अर्थशास्त्र का अभिमत है-जितनी इच्छा बढ़ेगी, उतना ही उत्पादन बढ़ेगा, जितना उत्पादन बढ़ेगा, उतनी ही समृद्धि बढ़ेगी। इस सिद्धांत ने सचमुच विनाश को निमंत्रण दे दिया है। अगर अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत
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