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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग सभी आणविक अस्त्रों को विनष्ट करने का सोवियत प्रस्ताव दोहराया। उसे सुनकर या पढ़कर सहसा विश्वास नहीं हुआ । प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सोवियत नेता गोर्वाच्योव ने परमाणु शस्त्ररहित शान्तिपूर्ण विश्व व्यवस्था के लिए दस सिद्धान्तों वाले घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए। वह दिल्ली घोषणा-पत्र के नाम से प्रसिद्ध है। इसके दस सूत्र इस प्रकार हैं
1. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का आधार बनाया जाए। 2. मानव जीवन को बहुमूल्य माना जाए।
3. अहिंसा को सामाजिक जीवन का आधार माना जाए।
4. भय और संदेह की जगह सद्भाव और विश्वास का वातावरण बने । 5. हर देश के राजनीतिक और आर्थिक आजादी के अधिकार को मान्यता दी जाए और उसका सम्मान किया जाये ।
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6. सैनिक हथियारों पर खर्च होने वाले साधनों का इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए किया जाय ।
7. हर व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के वातावरण को सुनिश्चित किया जाये । 8. मानव जाति की भौतिक और बौद्धिक क्षमता का उपयोग विश्व की समस्याओं को हल करने में किया जाये ।
'आतंक के संतुलन' की जगह व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा को स्थान दिया जाए
10. परमाणु हथियार मुक्त और अंहिसक विश्व बनाने के लिए तुरन्त ठोस कार्रवाई की जाए ।
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इस घोषणा पत्र में अंहिसा को सामाजिक जीवन के आधार बनाने तथा अहिंसक विश्व का निर्माण करने का जो संकल्प व्यक्त हुआ, यह सचमुच आश्चर्यजनक है। महावीर, बुद्ध और गांधी के देश में यह संकल्प व्यक्त किया जा सकता है, पर सोवियत नेता के द्वारा इस प्रकार की घोषणा में सहमति देना कम आश्चर्यजनक नहीं है। इस आश्चर्य की पृष्ठभूमि को समझे बिना उसका समाधान नहीं खोजा जा सकता । हिंसा का प्रयोग एक हथियार के रूप में
हिंसा के द्वारा लक्ष्य की पूर्ति की जा सकती है। इस धारणा के आधार पर उसे समस्या का समाधान माना गया। आज प्रत्येक क्षेत्र में समस्या के समाधान के लिए हिंसा का एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। इस अस्त्र का उपयोग केवल राजनीति और उद्योग के क्षेत्र में ही नहीं, शिक्षा की पवित्र भूमि में भी किया जा रहा है। सरकार और जनता - दोनों गाली की भाषा में विश्वास करते हैं। शास्त्र की अपेक्षा शस्त्र अधिक शक्तिशाली बन गया । शस्त्र के इस एकाधिकार और प्रभुत्व के खतरे गंभीर होते जा रहे हैं । उसकी गंभीरता का अनुभव उन लोगों
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