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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग तनाव को बढ़ावा देने वाली बनी हुई है। इस चाह का क्या अर्थ है और क्या परिणाम है, इससे हम अनजान नहीं हैं। सब कुछ जानते हुए भी आदमी सचाई के साथ आंखमिचौनी खेल रहा है। क्या जीवन-प्रणाली को बदला नहीं जा सकता ? अतिव्यस्तता और उससे उत्पन्न तनाव को कम नहीं किया जा सकता ? क्या तनाव विसर्जन के लिए कोई नया विकल्प नहीं खोजा जा सकता ? ध्यान एक बहुत अच्छा विकल्प है तनाव मुक्ति का और बहुत अच्छा उपाय है पदार्थ की अंधी दौड़ तथा स्पर्धा - जनित उतावलेपन से बचने का | महावीर की भाषा में अहिंसा के विकास का एक सशक्त साधन हैधर्मध्यान। जीवन में उसकी संगति अनेक विसंगतियों का समीचीन उपचार है।
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2. 6. जीवन - मरण से जुड़ी हुई 'हिंसा' और 'अहिंसा'
जीवन और मरण- नियति की श्रृंखला की दो कड़ियां हैं। जीना स्वाभाविक है, मरना भी स्वाभाविक है। जीने का अपना मूल्य है और मरने का अपना मूल्य । जीने के साथ अनेक स्वार्थ जुड़े होते हैं इसलिए वह हर आदमी को अच्छा लगता है मरना स्वार्थ से परे है, इस दुनिया से भी परे है इसलिए वह अच्छा नहीं लगता ।
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रहस्यपूर्ण संवाद
अनुश्रुति है कि महावीर के समवसरण में एक अलौकिक घटना घटित हुई । एक कोढ़ी आदमी अपनी पीब महावीर के पैरों पर मल रहा है और लयबद्ध स्वर में बोल रहा है- महावीर ! मर जाओ, श्रेणिक ! तुम जीते रहो, अभयकुमार ! तुम चाहे मरो चाहे जीओ, कालसौकरिक ! तुम न जीओ न मरो।
पहला उच्चारण बहुत अप्रिय लगा श्रेणिक को । उस दिव्य आत्मा के अदृश्य होने पर सम्राट् श्रेणिक ने पूछा- भंते ! यह कौन था ? इसने ऐसी अवांछनीय बात क्यों कही ?
महावीर ने कहा- श्रेणिक ! यह थी एक दिव्य आत्मा ! उसने जो कहा, वह बहुत सारपूर्ण है। मैं कैवल्य को प्राप्त हो चुका हूं। शरीर से सर्वथा पृथक् हूं, केवल शरीर में रह रहा हूं। 'महावीर मर जाओ' इस वाक्य का आशय था- अब तुम शरीर के बंधन से क्यों बंधे हो ? इस बंधन से भी मुक्त हो जाओ । श्रेणिक - भंते! मुझे क्यों कहा- तुम जीते रहो ?
भगवान् — मृत्यु के पश्चात् तुम्हारा यह राजसी ठाठ नहीं रहेगा। तुम निम्नगति का अनुभव करोगे, इसीलिए उस दिव्य आत्मा ने कहा- तुम्हारे लिए जीना ही अच्छा है। श्रेणिक - अभयकुमार के लिए दोनों बातें क्यों कहीं ?
भगवान् - वह तुम्हारा मंत्री है। यहां भी सुखी है और अगले जन्म में भी सुख का अनुभव करेगा।
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