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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग इन दो शब्दों-व्यवहार और परमार्थ पर विशेष ध्यान देना है। यदि हमारा ध्यान इन पर केन्द्रित होगा तो मनोवैज्ञानिकों, प्राणी-वैज्ञानिकों और आनुवंशिकी वैज्ञानिकों द्वारा उठाया गया यह प्रश्न समाधान पा सकेगा। हिंसा के बीज कोई बाहर नहीं हैं। हिंसा का जन्म आज नहीं हुआ है। हिंसा का जन्म पहले से ही हो चुका है। इस व्यवहार की अहिंसा ने हिंसा के प्रश्न पर आवरण डाल दिया है। जब भाई-भाई बड़े स्नेह के साथ रहते हैं, पति-पत्नी बड़े स्नेह के साथ रहते हैं, एक बड़े नगर में हजारों-हजारों, लाखों-लाखों लोग बड़े स्नेह और प्यार के साथ रहते हैं, तो हम एक भ्रांति में चले जाते हैं कि कितनी अहिंसा है ! कोई हिंसा ही नहीं है ! यह भ्रान्ति जब टूटती है तब प्रश्न पैदा होता है कि हिंसा का जन्म कैसे हुआ?
हम भ्रान्ति में जी रहे हैं। यह अहिंसा नहीं है। न भाई-भाई में अहिंसा है और न पिता-पुत्र में अहिंसा है, न पड़ोसी-पड़ोसी में अहिंसा है और न बृहत्तर लगने वाले समाज में अहिंसा है, मात्र एक उपयोगिता का धागा है । वह धागा है, तब तक ठीक चलता है। जब धागा टूटता है तो हिंसा भड़क उठती है। राजनीति में मित्रता का अर्थ है- स्वार्थों का सामंजस्य । जब तक स्वार्थ नहीं टकराते, तब तक मित्रता। स्वार्थ टकराया, फिर युद्ध तैयार । मित्रता होती नहीं है । वास्तविक मित्रता नहीं होती राजनीति में और समाज में । इसलिए अहिंसा के प्रश्न पर बहुत गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। अहिंसा का मूल आधार
मैं मानता हूं, ध्यान का अभ्यास इस परमार्थ की दिशा में एक प्रस्थान है। ध्यान का अर्थ है अपने आपको देखना। अपने आपको देखने का अर्थ है अहिंसा के मूल आधार को देखना, मूल आधार को खोजना। जब तक हम अपने आपको नहीं देखेंगे, तब तक अहिंसा के मूल आधार को नहीं खोज पाएंगे। हमारी अहिंसा की खोज अधूरी रहेगी और वह कभी पूरी नहीं होगी।
हमें सीखना है अपने आपको देखना। आज एक कठिनाई है कि ध्यान को हमने ठीक अर्थ में शायद समझा नहीं है। अगर ठीक अर्थ में समझते तो पढ़ना जितना अनिवार्य मानते हैं, ध्यान को उससे ज्यादा अनिवार्य मानते।
- आज के पिता के सामने लड़के को पढ़ाने की अनिवार्यता है, अपनी लड़की को पढ़ाने की अनिवार्यता है। वे समझते हैं कि लड़का नहीं पढ़ेगा तो पैसा नहीं कमा पाएगा। जीविका ठीक से नहीं चलेगी। लड़की नहीं पढ़ती है तो अच्छा वर या अच्छा घर नहीं मिलेगा। पढ़ाई की अनिवार्यता है, ध्यान की कोई अनिवार्यता नहीं है। व्यवहार की भूमिका पर जीने वाला आदमी हर बात का मूल्यांकन व्यवहार के स्तर पर करता है। परमार्थ की उसे कोई चिन्ता नहीं है। परमार्थ उसके लिए अनिवार्य नहीं बनता। कितना
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