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अहिंसा का व्यावहारिक स्वरूप भी कह देते हैं कि आखिर अहिंसा से हुआ क्या ? हिंसा हुई, सामना हुआ, बदला लिया गया और बात समाप्त हो गई। हिंसा सफल हो गई। अहिंसा सफल नहीं होती। अहिंसा में कोई आस्था नहीं है। इसका कारण है- अधिकांश आदमी हिंसा का मुखौटा पहने हुए हैं पर अहिंसा में आस्था रखन वाले कम हैं । आस्था जगाने वाला अहिंसा का प्रशिक्षण नहीं है। मै यह मानता हूं-जब तक मस्तिष्क का प्रशिक्षण नहीं होता, तब तक कोई भी आदमी किसी भी विषय में आस्थावान बन नहीं सकता । आवश्कता है प्रशिक्षण की । हिंसा से हमारा दिमाग बहुत प्रशिक्षित है। एक छोटे बच्चे का मस्तिष्क भी हिंसा से प्रशिक्षित है। एक बच्चा है आठ बरस का, सात बरस का, उसे कोई दूसरा गाली देगा तो वह तत्काल उसे गाली दे देगा। वह जानता है कि गाली का प्रतिकार है गाली। किसी ने ढेला फेंका तो वह पत्थर फेंकने का प्रयत्न करेगा । वह इस बात को जानता है, उसका मस्तिष्क इतना प्रशिक्षित है कि ढेले का जवाब ईंट या पत्थर से दिया जा सकता है। यह प्रशिक्षण आनुवांशिकता से प्राप्त है। हिंसा का ऐसा प्रशिक्षण मिल रहा है कि उसे सिखाने की जरूरत नहीं है । 3. गलत दृष्टिकोण से बचें
हिंसा के लिए हमारा मस्तिष्क बहुत प्रशिक्षित है। इस आधार पर यह माना लिया गया कि हिंसा समस्या का समाधान है। अहिंसा समस्या का समाधान है - इसमें हमारा विश्वास नहीं है । आज की भाषा है - सरकार जनता की बात तब तक नहीं सुनेगी,जब तक कि जनता भी हिंसा पर उतारू न हो जाए और जनता भी सरकार की बात तब तक नहीं सुनेगी जब तक कि पुलिस की गोली न चल जाए। एक हिंसा की बात समझती है और दूसरी गोली की बात समझती है। इतना गहरा विश्वास पैदा हो गया कि हिंसा के बिना कोई काम बन ही नहीं सकता। इस स्थिति में अहिंसा की बात करना, केवल उपदेश देना बहुत सार्थक नहीं लगता। अभी जो मैं चर्चा कर रहा हूं वह जीवनयात्रा की हिंसा और अहिंसा की चर्चा नहीं कर रहा हूं। जीवन-यात्रा में खाने में हिंसा होती है। व्यापार में हिंसा होती है.खेती में हिंसा होती है। उसकी चर्चा नहीं कर रहा हं। उस हिंसा की चर्चा कर रहा हूं जो हिंसा समाज के लिए बहुत उपद्रवकारी और सामाजिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने वाली हिंसा है, जो समाज को आतंकित और भयभीत करने वाली हिंसा है। आज वह हिंसा काफी मात्रा में चल रही है। दो दिन पहले एक भाई ने कहा- अमेरिका या कुछ दूसरे देशों में यह स्थिति है कि व्यक्ति घर से बाहर गया और शाम को राजी खुशी घर आ गया तो वह सोचता है कि आज तो राजी खुशी घर आ गया हूं। न जाने कहां-कब चलते-चलते हत्या हो जाए। किन्तु आजकल हमारे यहां भी आस-पास यह स्थिति बन गई कि व्यक्ति बाहर जाता है और घर पहुंचता है तो सोचता है कि राजी खुशी आ गया। पता नहीं कब क्या हो जाए। रात को सोता है पता नहीं जागेगा या नहीं। ये सारी हिंसक घटनाएं समाज को आतंकित और भयभीत कर देती हैं।
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