Book Title: Agamsaddakoso Part 4
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agamdip Prakashan

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Page 346
________________ (सुत्तंकसहिओ) ३४५ समुट्ठाणसुय [समुत्थानश्रुता (ues) आम || ६५४: સૂત્ર नाया. १८,२५,३२,५०,११०,१५३,२०९: वव. २७७; नंदी. १३७; अंत. १३,२०; पण्हा. ८,१६; जो.नंदी. १: विवा. १५,२१,२२.२८,३३; समुट्ठाय समुत्थाय]यात्रिसेवाभाटे Gधत थने, उव.३१ः સ્વીકારીને राय. ११,१५,२८,४४,८२,८३; सूय. ६४१: उत्त. १२५; जीवा. १६७,१७९,१८५; समुट्ठित [समुत्थित संयम माह अनुष्ठान माटे जंबू. २२,२६,२७,२९,३१,५५,६०,६८, તૈયાર, યથોક્તચારિત્ર માટે ઉઘત, ઉત્પન્ન થયેલ ७६.१२१,१२२,२२७,२२८; आया. २२०; सूय. ५५८,६०१; निर. १५: वण्हि . ३: ठा. १८९; जीवा. १६७; दसा. १०१; नंदी. १३६; समुट्ठिय समुत्थितामओ 6५२' अनुओ. ६२,२६५.२६७,२७५; आया. ६६,८९,१२२,१८६,२००; समुदाचार [समुदाचार सभीथीनसायरए। सूय. १००.१०५,१३५,१३६,२१०,६४५, सूय. ६६७,८०४: ६४७,६६५.७८३; समुदान /समुदान] समुदाय, मिक्षा, Gथ्यगनी टा. १८९: भग. २९१; ભિક્ષાનો સમુહ, ક્રિયા વિશેષ 'नाया. ३७.१११,२०९; पण्हा. १५; भग.१३४,१६०,१७२,५०८,६३९,६४५: राय. २९,४८; पिंड. ५५६,५५७; नाया. ५१,१५९,१६५,२१८: उत्त. ६९६,१०१४,१०३७ः । अनुत्त. १०; विवा. १२,२०,३१; समुद्रुउँ [समुत्थातुम्] Gधत थवाने भाटे, 684 पुष्फि . ८: માટે समुदानकिरिया [समुदानक्रिया] प्रयोग गरित गच्छा . ९७: કર્મોને પ્રકૃત્તિ સ્થિતિ આદિ રૂપે વ્યવસ્થિત समुत्त /समुक्ता गोत्र-विशेष કરનારી ક્રિયા जंबू. ५६.६१,७२,१२१,१२५; ठा. २००,४५७: समुत्तिण्ण समुत्तीर्ण]तरीने पार पामेल समुदानचरग [समुदानचरक] भिक्षानी गसए। जंबू. ७६; કરનાર, समुत्थ /समुत्थ] उत्पन थयेत सूय. ६६४; पिंड. ८९: नंदी. १०१: समुदानचरय [समुदानचरक मो 6५२' समुत्थय समवसृत भारहित पण्हा. ३४ः उत्त. ८२४: समुदानेऊण [समुदानीयघरोना समाथी मिक्षा समुत्थिय [समुत्थित] उत्पन थये। મેળવવી તે नाया. १८४; पण्हा. ३५: समुदय [समुदय] समुदाय, समूह, सारी शते ४५ | | समुदाय [समुदाय] समुदाय, समूह થવો તે उत्त. ९९७; आया. ५२०ः सम. २२७: समुदायार [समुदाचार] सहायार भग.३०३,३०७,४६४,४६५,५१६.६५२, नाया. २०९: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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