Book Title: Agamsaddakoso Part 4
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agamdip Prakashan

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Page 438
________________ (सुत्तंकसहिओ) ४३७ राय. ४९; जंबू. ३४,४४; जीवा. ५३; सुंदरि सुन्दरी हुमो ‘सुंदरी" सुक शुक] पोपट देविं. २७,२८,५१,६०,८३; पहा. ११; जीवा. १८५: सुंदरी सुन्दरी सौंध्यवान खी सुकंत सुकान्तकृत समुद्रनो वित ठा. ४७३; सम. १६३ः जीवा. २९३; उवा. ३८,३९; जंबू. ३४,४४; सुकच्छ [सुकच्छ] मावि क्षेत्रनी विश्य सुंब [सुम्बा जानी छलनी हो२४ी, अातनी ठा. ९६,७४९,८५९,८६०; વનસ્પતિ जंबू. १७०,१७१; ठा. ३७६; सुकड [सुकर] सुपसाध्य, ८५ परिश्रमथी थई भग. १६२,५९४.६५३,६५४,८१८; શકે તેવું पन्न. ६५ उत्त. ६५;, सुंभ [शुम्भ |मावानु सिंहासन, मे १२ || सुकड [सुकृत] सत्य, सारी शते २ __ सम. ८; नाया. १०७; आया. २१२,४७०,४७१; सुंभघोस [शुम्भघोषा विविमान सूय. ६४१ थी ६४४, चउ. ५८; सम. ८; दसा. ३५,३६, दस. ३३४; सुंभय [सुम्भक] हुमो ‘सुंभ" उत्त. ३६; नंदी. १४९; __ अनुओ. २३५; सुकडाणुमोयण [सुकृतानुमोदन] सोनी सुंभवडेंसय [शुम्भावतंसक] शुंभावानुमान પ્રશંસા नाया. १०७; चउ. १०; सुंभा [शुम्भा]महीन्द्रनी पराए, मेहेवी, || सुकडाणुराय [सुकृतानुराग सार्थोनोअनुराग ગાથાપતિ પુત્રી चउ. ५५ टा. ४३७; भग. ४८९: सुकढित [सुक्कथित सारी शत 6आणेस नाया. २२५; जीवा. २९३; सुंभुत्तर [शुम्भोत्तर] ४-५६-विशेष सुकढिय [सुक्कथित सो 6५२' भग. ६५२; जीवा. २९२; सुंसुमार [सुंसुमार] भाभ२७ सुकत [सुकृत] सार्थ सूय. ६८९; भग.६५८; पन्न. २०५,२१७ नाया.४; पण्हा .७,१५, सुकम्मविसल्ल [सुकर्मन्निशल्य/शुभधीशल्य विवा. १०,३१; जीवा. ४३,४६; રહિત બનેલ पन्न. १५७,१६०; उत्त. १६३६; भत्त. ५६ः सुंसुमारदह [सुसुमारद्रह) मे द्र सुकय सुकृताहुमो 'सुकड" भत्त.९६; भग. ३७२,३७३; नाया. १५,२५; सुंसुमारपुर [सुंसुमारपुर में नार उवा. २१: अंत. २७ भग. १७२; पण्हा. ११,१९,३८,३९,४५: सुसुमारिया [सुसुमारिक] भारी उव. २,२७,२९,३१ राय. २३ राय. १५,३१,४२,५२,५४; सुंसुमारी [शिशुमारी] भारी जीवा. १६४,१७५,१७९; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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