Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारमणिमञ्जूषा टीका, अध्ययन ६
'सओवसंता' इतिपदेनाऽष्टादशस्थानयथाविधिसमाराधनतत्पराणां साधूनां सिद्धिलाभावधि कदाऽप्युन्मनीभावो न विधेय इति ध्वनितम् । 'अममा' इतिपदेन निःस्पृहत्वमनभिमानित्वं च मूचितम् । ' अकिंचणा' इत्यनेन सन्निधिकरणाभावो धोतितः । 'सविज्जविज्जाणुगया' अनेनाऽऽत्महितकामुकानां कल्याणाय प्रवचन विचैव साधीयसी नतु लौकिकीति सूचितम् । 'जसंसिणो' इत्यनेन
'सओवसंता' पदसे यह व्यक्त किया है कि यथाविधि अठारह स्थानोंको साधना में तत्पर साधुओं को मोक्ष प्राप्ति तक कदापि अनमना न होना चाहिए । 'अममा' पदसे निःस्पृहता और अभिमानरहितता सूचित की है।
_ 'अकिंचणा' पदसे सन्निधि करने का अभाव और 'सविज्जविज्ञाणुगया' से आत्महित के आराधकों के लिए लौकिकविद्या नहीं किन्तु प्रवचनविद्या ही हितकर है, यह सूचित किया है । 'जसंसिणो' पदसे संयमभीरुता तथा प्रवचन की लघुता से भीरुता सूचित की है। 'ताइणो' पदसे महाव्रतों की रक्षामें दक्षता प्रगट की है ॥
કે યથાવિધિ અઢાર સ્થાનની સાધનામાં તત્પર સાધુઓને મોક્ષ પ્રાપ્તિ સુધી કદાપિ નારાજી ન થવી જોઈએ.
___ 'अममा' या पृडता मन भनिभान तिता सूयित ४१ छे. अकिंचणा थी सन्निधि ४२वान! अभाव भने सविज्जविज्जाणुगया था मामातना આરાધકને માટે લૌકિક વિદ્યા નહિ પરંતુ પ્રવચન વિદ્યા જ હિતકર છે એમ સૂચિત ४२पामा माव्यु छ. जसंसिणो शथी सयममा३ता तथा अपयननी धूताथी ला३ता सूचित ४ . ताइणो ण्या मानताना २६i Lक्षता ट ४॥ छे.
શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨