Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 264
________________ २५० श्री दशवैकालिकसूत्रे कथितः सन् बडबड-शब्देन वदति स तिन्तिणः, न तिन्तिणोऽतिन्तिणः । तथा प्रतिपूर्णः मूत्रादिना । आयतमायतार्थिकः अत्यन्तं मोक्षाभिलाषी। दान्तो जितेन्द्रियः। भावसन्धको गुर्वाधभिप्रायवर्ती विनयीत्यर्थः भवति-संपद्यते आचारसमाधि तत्पराणामेते गुणाः संपद्यन्ते इति भावः । 'जिणवयणरए' इत्यनेन वीतरागवचनव्यतिरिक्तस्वीकरणम् आत्महिताय न भवतीति सचितम् । 'अतितिणे'-इतिपदेन गाम्भीर्यवत्वं, जिनवचनाऽलधुत्वं च व्यञ्जितम् ।। 'पडिपुन'-इत्यनेन सम्यग्ज्ञानक्रियावत्वम् , 'आययट्ठिए' इत्यनेन पौगलिकमुखानभिलाषित्वं, 'दंते'-इत्यनेन इन्द्रियदमनाभावे आचारपालनाऽशब्द न करने वाला, अथवा किसी ने कटुक वाक्य कह भी दिया हो तो पीछा कुछभी नही बोलने वाला, सूत्रादि से परिपूर्ण और विनयी होता है । तात्पर्य यह कि आचारसमाधि में तत्पर मुनि, अनेक गुण प्राप्त कर लेता है। _ "जिणवयणरए" पदसे यह प्रगट किया है कि-वीतराग के सिवाय अन्य के वचनों से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता "अतिंतिणे" पदसे सम्यग् ज्ञान और सम्यक चारित्र "आययहिए" पदसे विना इन्द्रियों का दमन किये आचार पालने का असामर्थ्य, और "भावसंधए" पदसे गुरुके अभिप्राय से विमुख व्यक्तिका आत्मकल्याण न होना प्रगट किया है। पहले कही हई आचारसमाधि, विधिरूपसे समस्त अनर्थों का निवारण करनेवाली, तथा सर्व मनोरथों का साधने वाली है इसलिए माननीय होने के कारण 'जिणवयणरए' અથવા કેઈએ કડવાં વચને કહ્યા હોય તો પણ કઈવાર તેના પર રોષ નહિ કરવાવાળા સૂત્રોના જ્ઞાનથી પરિપૂર્ણ અને વિનયી હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે – આચાર-સમાધિમાં તત્પર મુનિ અનેક ગુણ પ્રાપ્ત કરી લીએ છે. 'जिणवयणरए' ५४थी में प्रगट ४यु छ :-वीतरागन क्यनी विना भीकन क्यनाथी मात्मानुयाय २७ शतुनथी. 'अतितिणे' ५४थी सभ्यज्ञान मन सभ्य सारित 'आययट्टिए' ५४थी धादियाना मन विना मायार पालनमा असमर्थता भने 'भावसंधए' पहथी शुरुना ममिप्रायथा विभुष व्यतिर्नु मात्म-४८या थत નથી એ પ્રગટ કર્યું છે. પ્રથમ કહેલી આચારસમાધિ, વિધિરૂપથી સમસ્ત અનર્થોનું નિવારણ કરવા વાળી, તથા સર્વ મનોરથને સિદ્ધ કરવા વાળી, છે, એ માટે શ્રેષ્ઠ पाना २) 'जिणवयणेरए' पहथी प्रथम वाम पापी छ. ६ ५५ प्रानी શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨

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