Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 245
________________ आचारमणिमञ्जूषा टीका, अध्ययन ९ उ. ३ गा. १०-११ २३१ 'अलोलुए' इत्यनेन रसनेन्द्रियविजेतृत्वम्, 'अकुहए' इत्यनेन अवञ्च - कत्वम्, “अमाई” इत्यनेन स्फटिकमणिविमलमानसत्वम्, “अपिसुणे” इत्यनेन समदर्शित्वम्, “अदीणवित्ती" इत्यनेन यथालाभसंतोषित्वं, प्रवचनमहिमवेत्तृत्वं च 'अकोउहल्ले' इत्यनेन च कर्मनाटकचिन्तनेन लौकिकनाटकदर्शनोकण्ठाविरसत्वं चावेदितम् ||१०|| मूलम्--गुणेहिं' साहू' अंगुणेहिंऽसाहू, गिह्नाहि साहूगुण 'मंच साहूँ । विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागंदोसे हि सॅमो से पुँजो ॥११॥ छाया - गुणैः साधुः अगुणैः असाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुच असाधून, विज्ञाय आत्मानमात्मना, यो रागद्वेषयोः समः स पूज्यः || ११|| टीका- 'गुणेहिं' इत्यादि । गुणैः = विनयादिभिः सप्तविंशत्यनगारगुणैश्च साधुर्भवति, अगुणैरविनयादिभिरसाधुः = साधुत्वरहितो भवति, अतो हे शिष्य ! साधुगुणान् = विनयादीन्, कराता, स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करता, तथा नाटक आदि खेल देखने की उत्कण्ठा नहीं रखता वह पूजनीय होता है । "अलोलुए" पदसे रसना-इन्द्रिय का विजय, 'अकुहए' पदसे धूर्तता - ठगाई नहीं करना, 'अमाई' पदसे स्फटिक के सामान अन्त:करण की स्वच्छता, 'अपिसुणे' पदसे समता, 'अदीणवित्ती' पदसे संतोष और प्रवचन की महिमा का ज्ञान, 'अको उहल्ले' पदसे कर्म रूपी नाटक का विचार करके लौकिक नाटक देखने की इच्छा का परित्याग सूचित किया है ॥१०॥ 'गुणेहिं' इत्यादि । विनय आदि सद्गुणो से साधु होता है નથી તેમજ પેતે પણ પેાતાની પ્રશંશા કરતા નથી; તથા નાટક વગેરે ખેલ જોવાની ઉત્કંઠા રાખતા નથી. તે પૂજનીય થાય છે. 'अलोलुए' पढ्थी रसना इन्द्रियनो विनय 'अकुहए' पहथी धूतर्ता गार्ड नही ४२वी ते. अमाई पढथी साटिउना प्रभा मन्तगुनी स्वच्छता. 'अपिसुणे' हथी समता, 'अदीणवित्ती' पहथी संतोष याने प्रवचनना भहिभानु ज्ञान 'अकोले' पथी उम३यी नाटडनो विचार पुरीने सोडिक नाटक लेवानी रछानो परित्याग सूयव्यो छे. (१०) 'गुणेहिं' इत्याहि-विनय आहि सद्गुष्योथी साधु धवाय हे; भने भविनय શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨

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