Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 192
________________ १७८ श्री दशपैकालिफसूत्रे पञ्चविधस्वाध्यायधर्मशुक्लध्याननिमनस्येत्यर्थः, प्रायिणः स्वपररक्षणतत्परस्य , अपापभावस्य=शुद्धचित्तस्य विगतविषयसुखस्पृहस्येत्यर्थः। तपसि=अनशनादिलक्षणे रतस्यसमासक्तस्य तस्य साधोः यत् पुराकृतं पूर्वोपार्जितं मलं पापं, तत ज्योतिषा-बहिना समीरितं संयोजितं रूपमलं रजतमलमिव विशुध्यतिपक्षीयते। 'सज्झायसज्झाणरयस्स' इत्यनेन स्वाध्याये चित्तैकाग्रता, विकथावर्जितत्वं निष्पयोजनावस्थितिरहितत्वं च सूचितम् । 'ताइणो' इत्यनेन संयमरक्षणशीलत्वं ध्वनितम् । 'अपावभावस्स' इत्यनेन जिनवचनाभिरुचिमत्त्वं व्यक्तीकृतम् । 'तवेरयस्स' इत्यनेनात्मसंशोधनातिशयाभिलाषवत्वमावेदितम् ॥ ६३ ॥ मूलम् से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिये सुर्येण जुत्तै अममे अकिंचणे । विरॉयई कर्मघणमि अवगए, कसिणभैपुडावगमे चंदिमे ॥६॥ छाया-स तादृशो दुःखसहो जितेन्द्रियः, श्रुतेन युक्तोऽममोऽकिञ्चनः । विराजते कर्मघनेऽपगते, कृत्स्नाभ्रपुटापगमे इच चन्द्रमाः ॥ इति ब्रवीमि ॥ ६४ ॥ रक्षा करने वाले, सर्वथा विकार रहित चित्त वाले, और अनशन आदि तप में लीन साधु का पूर्वोपार्जित पाप इस प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे अग्नि के द्वारा चांदी का मैल नष्ट हो जाता है। 'सज्झायसज्झाणरयस्स'-इस पद से चित्त की एकाग्रता, विकथाओ का त्याग, तथा निकम्मे रहनेका त्याग सूचित किया है। 'ताइणो' पद से संयम की रक्षणशीलता व्यक्त की गई है। 'अपावभावस्स'-पद से जिनेन्द्र भगवान् के वचनों में रुचि रखने का विधान किया गया है। तवेरयस्स' पद से आत्मशुद्धि की अतिशय अभिलाषा रखना बताया गया है ॥६३॥ રહિત ચિત્તવાળા, અને અનશન આદિ તપમાં લીન, એવા સાધુનાં પૂર્વોપાર્જિત પાય એ રીતે નષ્ટ થઈ જાય છે કે જે રીતે અગ્નિ દ્વારા ચાંદીને મેલ નષ્ટ થઈ જાય છે. सज्झायसझाणरयस्स थे ५४था पित्तनी मेहता, विस्या माना त्यान, તથા નકામાં રહેવાને ત્યાગ સૂચિત કર્યો છે તાણTI પદથી સંયમની રક્ષણ શીલતા ०५४॥ ४॥ छे. अपावभावस्स पथ निन्द्र लगवानां क्यनामा ३थि रामवार्नु विधान ४२वामी माव्यु छ. तवेरयस्स पथी आत्मशुद्धिनी मतिशय भलिला! रामवार्नु मताव्यु छ. (१) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨

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