Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 151
________________ आचारमणिमञ्जूषा टाका, अध्ययन ८ गा. १७-१८ मलाद्युत्सर्जनस्थानम्, तथा संस्तारकं शयनोपयोगि तृणादिनिर्मितमास्तरणम्, आसनं पीठफलकादिकं, योगेन = एकाग्रलक्षणेन, ध्रुवं नियमेन काले काले प्रति लेखयेत् उपलक्षणमिदं सदोरक मुखवस्त्रिकारजोहरणादीनामपि ॥१७॥ मूलम् - उच्चारं पासवणं, खेल सिंघाणजल्लियं । १ फासुयं पडिले हित्ता, परिट्टाविज्ज' संजए' ॥१८॥ छाया - उच्चारं प्रस्रवणं श्लेष्माणं सिंघाण जलं च । प्राकं प्रतिलेख्य प्रतिष्ठापयेत् संयतः || १८ || टीका- ' उच्चारं ' इत्यादि । १३७ संयतः साधुः प्रासुकम्=अचित्तं स्थानं प्रतिलेख्य = सम्यङ्गनिरीक्ष्येत्यर्थः, उच्चारं पुरीषं प्रस्रवणं सूत्रं, श्लेष्माणं कर्फ, सिंघाणजल्लं = नासिकामलं च परिष्ठापयेत् = उत्सृजेत् परित्यजेदित्यर्थः । उच्चारादिसमुत्सर्जनमचित्तप्रदेशे एवं कार्यम् । प्रासुकस्थाननिश्चयश्च प्रतिलेखनं विना न संभवतीति स्थानप्रतिलेखनं विधायोच्चारादि कुर्यादिति भावः || १८ || संस्तारक का, पीठ, फलक आदि आसन का एकाग्र चित्तसे यथाकाल अवश्य ही प्रतिलेखन करे, उपलक्षण से सदोरकमुखवस्त्रिका और रजोहरण आदि सब उपकरणो का भी प्रतिलेखन करे || १७॥ 'उच्चारं' इत्यादि । साधु, जीवरहित स्थान में सम्यक् प्रकार देख कर उच्चार प्रस्रवण कफ तथा नासिका, और कान का मल त्यागे, उच्चार प्रस्रवण आदि का त्याग अचित्त प्रदेश में ही करना चाहिए, अचित्त प्रदेश का निश्चय भली भाँति प्रतिलेखन किये बिना नहीं हो सकता एतएव स्थान का प्रतिलेखन करके ही मलादि को परिठवना चाहिए ॥ १८ ॥ એકાગ્ર ચિત્તથી થાકાલ સાધુ અવશ્ય પ્રતિલેખન કરે. ઉપલક્ષણથી મુખવસ્તિકા અને રજોહરણુ આદિ બધાં ઉપકરણેાનું પણ પ્રતિલેખન કરે. (૧૭) उच्चारं . ० छत्याहि साधु, व रहित स्थानमा सभ्य प्रारे लेने उभ्यार પ્રસ્રવણુ કર્ તથા નાક-કાનના મેલ ત્યાગે. ઉચ્ચાર પ્રસ્રવણુ આદિના ત્યાગ અચિત્ત પ્રદેશમાં જ કરવા જોઇએ; અચિત્ત પ્રદેશના નિશ્ચય સારી રીતે પ્રતિલેખન કર્યા વિના થઇ શકતા નથી; તેથી કરીને સ્થાનનું પ્રતિલેખન કરીને જ મલાદિને પરિઝવવા लेडो (१८) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨

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