Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 12
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र (व्यावहारिक परमाणु) सभी प्रमाणों का आदि कारण है। सूत्र-२९ अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के समुदाय-संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है । आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणकाओं की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है । आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं का एक ऊर्ध्वरेणु होता है । आठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेणु होता है । आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु होता है । आठ रथरेणुओं का देवकुरु तथा उत्तरकुरु निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । इन आठ बालागों का हरिवर्ष तथा रम्यकवर्ष निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । इन आठ बालाग्रों का हैमवत तथा हैरण्यवत निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। इन आठ बालारों का पूर्वविदेह एवं अपरविदेह निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । इन आठ बालागों की एक लीख होती है । आठ लीखों की एक जूं होती है । आठ जूओं का एक यवमध्य होता है । आठ यवमध्यों का एक अंगुल होता है । छ: अंगुलों का एक पाद होता है । बारह अंगुलों की एक वितस्ति होती है । चौबीस अंगुलों की एक रत्नि होती है । अड़तालीस अंगुलों की एक कुक्षि होती है । छियानवे अंगुलों का एक अक्ष होता है । इसी तरह छियानवे अंगुलों का एक दंड़, धनुष, जुआ, मूसल तथा नलिका होती है । २००० धनुषों का एक गव्यूत-होता है । चार गव्यूतों का एक योजन होता है। इस योजन-परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊंचा तथा इससे तीन गुनी परिधि युक्त पल्य हो । देवकुरु तथा उत्तरकुरु में एक दिन, यावत् अधिकाधिक सात दिन-रात के जन्मे यौगलिक के प्ररूढ बालानों से उस पल्य को इतने सघन, ठोस, निचित, निबिड रूप में भरा जाए कि वे बालाग्र न खराब हों, न विध्वस्त हों, न उन्हें अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके, न वे सड़े-गलें । फिर सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बालाग्र निकाले जाते रहने पर जब वह पल्य बिल्कुल खाली हो जाए, बालानों से रहित हो जाए, निर्लिप्त हो जाए, तब तक का समय एक पल्योपम कहा जाता है। सूत्र-३० ऐसे कोड़ाकोड़ी पल्योपम का दस गुना एक सागरोपम का परिमाण है। सूत्र - ३१ __ ऐसे सागरोपम परिमाण से सुषमसुषमा का काल चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुषमदुःषमा का काल दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुःषमसुषमा का काल ४२००० वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुःषमा का काल २१००० वर्ष तथा दुःषमदुःषमा का काल २१००० वर्ष है । अवसर्पिणी काल के छह आरों का परिमाण है । उत्सर्पिणी काल का परिमाण इससे उलटा है। इस प्रकार अवसर्पिणी का काल दस सागरोपम कोड़ाकोड़ी तथा उत्सर्पिणी का काल भी दस सागरोपम कोड़ाकोड़ी है । दोनों का काल बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। सूत्र- ३२ जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के सुषमासुषमा नामक प्रथम आरे में, जब वह अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा में था, भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप अवस्थिति- सब किस प्रकार का था ? गौतम ! उस का भूमिभाग बड़ा समतल तथा रमणीय था । मुरज के ऊपरी भाग की ज्यों वह समतल था । नाना प्रकार के काले यावत् सफेद मणियों एवं तृणों से वह उपशोभित था । इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उस समय भरतक्षेत्र में उद्दाल, कुद्दाल, मुद्दाल, कृत्तमाल, नृत्तमाल, दन्तमाल, नागमाल, शृंगमाल, शंखमाल तथा श्वेतमाल नामक वृक्ष थे । उन की जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से रहित थीं । वे उत्तम मूल, कंद, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज से सम्पन्न थे । वे पत्तों, फूलों और फलों से ढके रहते तथा अतीव कान्ति से सुशोभित थे । उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत से भेरुताल, हेरुताल, मेरुताल, प्रभताल, साल, सरल, सप्तपर्ण, सुपारी, खजूर तथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12

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