Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र से ढंके हुए, सुकोमल हथेलियों पर उठाये हुए १००८ सोने के कलशों यावत् १००८ मिट्टी के कलशों के सब प्रकार के जलों, मृत्तिकाओं, कसैले पदार्थों, औषधियों एवं सफेद सरसों द्वारा सब प्रकार की ऋद्धि-वैभव के साथ तुमुल वाद्यध्वनिपूर्वक भगवान् तीर्थंकर का अभिषेक करता है । अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक किये जाते समय अत्यन्त हर्षित एवं परितुष्ट अन्य इन्द्र आदि देव छात्र, चँवर, धूपपान, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, वज्र, त्रिशूल हाथ में लिये, अंजलि बाँधे खड़े रहते हैं । कतिपय देव पण्डकवन के मार्गों में, जल का छिड़काव करते हैं, सम्मार्जन करते हैं-उपलिप्त करते हैं । यों उसे शुचि एवं स्वच्छ बनाते हैं, सुगन्धित धूममय बनाते हैं।
कईं एक वहाँ चाँदी बरसाते हैं । कईं स्वर्ण, रत्न, हीरे, गहने, पत्ते, फूल, फल, बीज, मालाएं, गन्ध, वर्ण तथा चूर्ण-बरसाते हैं। कईं एक मांगलिक प्रतीक के रूप में अन्य देवों को रजत भेंट करते हैं, यावत् चूर्ण भेंट करते हैं । कईं एक तत्, वितत, घन तथा कईं एक शुषिर-आदि चार प्रकार के वाद्य बजाते हैं । कईं एक उत्क्षिप्त, पादात्त, मंदाय, आदि के प्रयोग द्वारा धीरे-धीरे गाये जाते तथा रोचितावसान-पर्यन्त समुचितनिर्वाहयुक्त गेय-गाते हैं। कईं एक अञ्चित, द्रत, आरभट तथा भसोल नामक चार प्रकार का नत्य करते हैं । कईं दान्तिक, प्रातिश्रुतिक, सामान्यतोविनिपातिक एवं लोकमध्यावसानिक-चार प्रकार का अभिनय करते हैं। कईं बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि उपदर्शित करते हैं । कईं उत्पात-निपात, निपातोत्पात, संकुचित-प्रसारित तथा भ्रान्त-संभ्रान्त, वैसी अभिनयशून्य गात्रविक्षेपमात्र-नाट्यविधि उपदर्शित करते हैं। कईं ताण्डव, कईं लास्य नृत्य करते हैं।
कईं एक अपने को पीन बनाते हैं, प्रदर्शित करते हैं, कईं एक बूत्कार करते हैं-आहनन करते हैं, कईं एक वल्गन करते हैं, कईं सिंहनाद करते हैं, कईं घोड़ों की ज्यों हिनहिनाते हैं, कईं हाथियों की ज्यों गुलगुलाते हैं, कई रथों की ज्यों घनघनाते हैं, कईं एक आगे से मुख पर चपत लगाते हैं, कईं एक पीछे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक अखाड़े में पहलवान की ज्यों पैंतरे बदलते हैं, कईं एक पैर से भूमि का आस्फोटन करते हैं, कईं हाथ से भूमि का आहनन करते हैं, कईं जोर-जोर से आवाज लगाते हैं । कईं हुंकार करते हैं । कईं पूत्कार करते हैं । कईं थक्कार करते हैं, कईं अवपतित होते हैं, कईं उत्पतित होते हैं, कईं परिपतित होते हैं, कईं ज्वलित होते हैं, कईं तप्त होते हैं, कईं प्रतप्त होते हैं, कईं गर्जन करते हैं । कईं बिजली की ज्यों चमकते हैं । कईं वर्षा के रूप में परिणत होते हैं । कईं वातूल की ज्यों चक्कर लगाते हैं । कईं अत्यन्त प्रमोदपूर्वक कहकहाहट करते हैं । कईं लटकते होठ, मुँह बाये, आँखें फाड़े-बेतहाशा नाचते हैं। कईं चारों ओर दौड़ लगाते हैं । सूत्र-२४१
सपरिवार अच्युतेन्द्र विपुल, बृहत् अभिषेक-सामग्री द्वारा तीर्थंकर का अभिषेक करता है। अभिषेक कर वह हाथ जोड़ता है, 'जय-विजय' शब्दों द्वारा भगवान् की वर्धापना करता है, 'जय-जय' शब्द उच्चारित करता है। वैसा कर वह रोएंदार, सुकोमल, सुरभित, काषायित, बिभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए वस्त्र-द्वारा भगवान् का शरीर पोंछता है । उनके अंगों पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है । बारीक और हलके, नेत्रों को आकृष्ट करनेवाले, उत्तम वर्ण एवं स्पर्शयुक्त, घोड़े के मुख की लार के समान कोमल, अत्यन्त स्वच्छ, श्वेत, स्वर्णमय तारों से अन्तःखचित दो दिव्य वस्त्र-एवं उत्तरीय उन्हें धारण कराता है । कल्पवृक्ष की ज्यों अलंकृत करता है । नाट्यविधि प्रदर्शित करता है, उजले, चिकने, रजतमय, उत्तम रसपूर्ण चावलों से भगवान् के आगे आठ-आठ मंगल-प्रतीक आलिखित करता है-जैसेसूत्र-२४२
१.दर्पण, २. भद्रासन, ३. वर्धमान, ४. वर कलश, ५. मत्स्य, ६. श्रीवत्स, ७. स्वस्तिक तथा ८. नन्द्यावर्त । सूत्र-२४३
पूजोपचार करता है । गुलाब, मल्लिका, आदि सुगन्धयुक्त फूलों को कोमलता से हाथ में लेता है । वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, उन पँचरंगे पुष्पों का घुटने-घुटने जितना ऊंचा एक विचित्र ढेर लग जाता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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