Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
का होता है । ये प्रथम छः मास हैं । वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे छ: मास के प्रथम अहोरात्र में दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है । जब सूर्य दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब २/६१ मुहूर्तांश कम १८ मुहूर्त की रात होती है, २/६१ मुहूर्तांश अधिक १२ मुहूर्त का दिन होता है । ऐसे पूर्वोक्त क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ रात्रि-क्षेत्रमें एक-एक मण्डलमें २/६१ मुहूर्तांश कम करता हुआ तथा दिवस-क्षेत्रमें २/६१ मुहूर्तांश बढ़ाता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है । जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह सर्वबाह्य मण्डल का परित्याग कर १८३ अहोरात्र में रात्रि-क्षेत्र में ३६६ संख्या-परिमित १/६१ मुहूर्तांश कम कर तथा दिवस-क्षेत्र में उतने ही मुहर्तीश अधिक कर गति करता है। ये द्वितीय छह मास हैं । यह आदित्य-संवत्सर हैं। सूत्र- २६०, २६१
भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तो उसके ताप-क्षेत्र की स्थिति किस प्रकार है ? तब ताप-क्षेत्र की स्थिति ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प के संस्थान जैसी होती है-वह भीतर में संकीर्ण तथा बाहर विस्तीर्ण, भीतर से वृत्त तथा बाहर से पृथुल, भीतर अंकमुख तथा बाहर गाड़ी की धुरी के अग्रभाग जैसी होती है । मेरु के दोनों ओर उसकी दो बाहाएं हैं-उनमें वृद्धि-हानि नहीं होती । उनकी लम्बाई ४५००० योजन है। उसकी दो बाहाएं अनवस्थित हैं । वे सर्वाभ्यन्तर तथा सर्वबाह्य के रूप में अभिहित हैं । उनमें सर्वाभ्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में ९४८६-९/१० योजन है । जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे ३ से गणित किया जाए। गुणनफल को दस का भाग दिया जाए । उसका भागफल इस परिधि का परिमाण है । उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवणसमुद्र के अन्त में ९४८६८-४/१० योजन-परिमित है । जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे ३ से गुणित किया जाए, गुणनफल को १० से विभक्त किया जाए । वह भागफल इस परिधि का परिमाण है । उस समय तापक्षेत्र की लम्बाई ७८३३३-१/३ योजन होती है।
मेरु से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त ४५००० योजन तथा लवणसमुद्र के विस्तार २००००० योजन के १/६ भाग ३३३३३-१/३ योजन का जोड़ ताप-क्षेत्र की लम्बाई है। उसका संस्थान गाड़ी की धूरी के अग्रभाग जैसा होता है। सूत्र-२६२
भगवन् ! तब अन्धकार-स्थिति कैसी होती है ? गौतम ! अन्धकार-स्थिति तब ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प का संस्थान लिये होती है । वह भीतर संकीर्ण, बाहर विस्तीर्ण इत्यादि होती है । उसकी सर्वाभ्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में ६३२४-६/१० योजन-प्रमाण है । जो पर्वत की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को दस से विभक्त किया जाए, उसका भागफल इस परिधि का परिमाण है । उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवणसमुद्र के अन्त में ६३२४५/६-१० योजन-परिमित है । गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को दस से विभक्त किया जाए, उसका भागफल इस परिधि का परिमाण है । तब अन्धकार क्षेत्र का आयाम, ७८३३३-१/३ योजन है । जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है तो ताप-क्षेत्र का संस्थान ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प संस्थान जैसा है । अन्य वर्णन पूर्वानुरूप है । इतना अन्तर हैपूर्वानुपूर्वी के अनुसार जो अन्धकार-संस्थिति का प्रमाण है, वह इस पश्चानुपूर्वी के अनुसार ताप-संस्थिति का जानना । सर्वाभ्यन्तर मण्डल के सन्दर्भ में जो ताप-क्षेत्र-संस्थिति का प्रमाण है, वह अन्धार-संस्थिति में समझ लेना सूत्र - २६३
भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में सूर्य (दो) उद्गमन-मुहूर्त में स्थानापेक्षया दूर होते हुए भी द्रष्टा की प्रतीति की अपेक्षा से समीप दिखाई देते हैं ? मध्याह्न-काल में समीप होते हुए भी क्या वे दूर दिखाई देते हैं ? अस्तमन-वेलामें दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? हा गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य उदयकाल, मध्याह्नकाल तथा अस्तमानकाल में क्या सर्वत्र एक सरीखी ऊंचाई लिये होते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! यदि जम्बू
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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