Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 81
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र विस्तार २५० योजन है। असुरेन्द्र वर्जित सभी भवनवासी इन्द्रों का ऐसा ही वर्णन है । असुरकुमारों के ओघस्वरा, नागकुमारों के मेघस्वरा, सुपर्णकुमारों के हंसस्वरा, विद्युत्कुमारों के तौञ्चस्वरा, अग्निकुमारों के मंजुस्वरा, दिक्कुमारों के मंजुघोषा, उदधिकुमारों के सुस्वरा, द्वीपकुमारों के मधुरस्वरा, वायुकुमारों के नन्दिस्वरा तथा स्तनित कुमारों के नन्दिघोषा नामक घण्टाएं हैं। सूत्र-२३७ चमरेन्द्र के चौसठ एवं बलीन्द्र के साठ हजार सामानिक देव हैं । असुरेन्द्रों को छोड़कर धरणेन्द्र आदि इन्द्रों के छह-छह हजार सामानिक देव हैं । सामानिक देवों से चार चार गुने अंगरक्षक देव हैं। सूत्र-२३८ चमरेन्द्र को छोड़कर दाक्षिणात्य भवनपति इन्द्रों के भद्रसेन और बलीन्द्र को छोड़कर उत्तरीय भवनपति इन्द्रों के दक्ष नामक पदाति-सेनाधिपति हैं । इसी प्रकार व्यन्तरेन्द्रों तथा ज्योतिष्केन्द्रों का वर्णन है । उनके ४००० सामानिक देव, चार अग्रमहिषियाँ तथा १६००० अंगरक्षक देव हैं, विमान १००० योजन विस्तीर्ण तथा महेन्द्रध्वज १२५ योजन विस्तीर्ण है । दाक्षिणात्यों की मंजुस्वरा तथा उत्तरीयों की मंजुघोषा घण्टा है। उनके पदातिसेनाधिपति तथा विमानकारी-आभियोगिक देव हैं । ज्योतिष्केन्द्रों-चन्द्रों की सुस्वरा एवं सूर्यों की सुस्वरनिर्घोषा घण्टाएं हैं। सूत्र - २३९ देवेन्द्र, देवराज, महान् देवाधिप अच्युत अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है, उनसे कहता हैदेवानुप्रियों! शीघ्र ही महार्थ, महाघ, महार्ह, विपुल-तीर्थंकराभिषेक उपस्थापित करो-। यह सुनकर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परिपुष्ट होते हैं । वे ईशानकोण में जाते हैं । वैक्रियसमुद्घात से १००८ स्वर्णकलश, १००८ रजतकलश-इसी प्रकार मणिमय, स्वर्ण-रजतमय, स्वर्णमणिमय, रजत-मणिमय, स्वर्ण-रजतमणिमय, भौमेय, चन्दन ये सब कलश तथा १००८-१००८ झारियाँ, दर्पण, थाल, पात्रियाँ, सुप्रतिष्ठक, रत्नकरंडक, वातकरंडक, पुष्पचंगेरी, पुष्प-पटलों, १००८-१००८ सिंहासन, तैल-समुद्गक, यावत् सरसों के समुद्गक, १००८ तालवृन्त तथा १००८ धूपदान-की विकुर्वणा करते हैं । स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों से धूपदान पर्यन्त सब वस्तुएं लेकर, क्षीरोद्र समुद्र आकर क्षीररूप उदक ग्रहण करते हैं । उत्पल, पद्म आदि लेते हैं । पुष्करोद समुद्र से जल आदि लेते हैं । समयक्षेत्र-पुष्करवरद्वीपार्ध के भरत, ऐरवत के मागध आदि तीर्थों का जल तथा मृत्तिका लेते हैं । गंगा आदि महानदियों का जल एवं मृतिका ग्रहण करते हैं । फिर क्षुद्र हिमवान् पर्वत से तुवर आदि सब कषायद्रव्य, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, मालाएं, औषधियाँ तथा सफेद सरसों लेते हैं। उन्हें लेकर पद्मद्रह से उसका जल आदि ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार समस्त कुलपर्वतों, वृत्तवैताढ्य पर्वतों, सब महाद्रहों, समस्त क्षेत्रों, सर्व चक्रवर्ती विजयों, वक्षस्कार पर्वतों, अन्तर-नदियों से जल एवं मृत्तिका लेते हैं । कुरु से पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्व भरतार्ध, पश्चिम भरतार्ध आदि स्थानों से सदर्शन-के भद्रशाल वन पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य एवं सफेद पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य एवं सफेद सरसों लेते हैं। इसी प्रकार नन्दनवन से सर्वविध कषायद्रव्य, सफेद सरसों, सरस-चन्दन तथा दिव्य पुष्पमाला लेते हैं । इसी भाँति सौमनस एवं पण्डक वन से सर्व-कषाय-द्रव्य पुष्पमाला एवं दर्दर और मलय पर्वत पर उद्भूत सुरभिमय पदार्थ लेते हैं । ये सब वस्तुएं लेकर एक स्थान पर मिलते हैं । तीर्थंकर के पास आकर महार्थ तीर्थंकराभिषेकोपयोगी क्षीरोदक आदि वस्तुएं अच्युतेन्द्र के संमुख रखते हैं । सूत्र - २४० देवेन्द्र अच्युत अपने १०००० सामानिक देवों, ३३ त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति-देवों तथा ४०००० अंगरक्षक देवों से परिवृत्त होता हुआ स्वाभाविक एवं विकुर्वित उत्तम कमलों पर रखे हुए, सुगन्धित, उत्तम जल से परिपूर्ण, चन्दन से चर्चित गलवे में मोली बाँधे हुए, कमलों एवं उत्पलों मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 81

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