Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 79
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र माला अपने से आधी ऊंची, अर्ध कुम्भिकापरिमित चार मुक्तामालाओं द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है । उन मालाओं में तपनीय-स्वर्णनिर्मित लंबूसक लटकते हैं । वे सोने के पातों से मण्डित हैं । वे नानाविध मणियों एवं रत्नों से निर्मित हारों, अर्धहारों-से उपशोभित हैं, विभूषित हैं । पूर्वीय-आदि वायु के झोंकों से धीरे-धीरे हलती हुई, परस्पर टकराने से उत्पन्न कानों के लिए तथा मन के लिए शान्तिप्रद शब्द से आस-पास के प्रदेशों को आपूर्ण करती हुई-भरती हुई वे अत्यन्त सुशोभित होती हैं । उस सिंहासन के वायव्यकोण में, उत्तर में एवं ईशान में शक्र के ८४०००, सामानिक देवों के ८४००० उत्तम आसन हैं, पूर्व में आठ प्रधान देवियों के आठ उत्तम आसन हैं, आग्नेय कोण में आभ्यन्तर परिषद् के १२००० देवों के १२०००, दक्षिण में मध्यम परिषद् के १४००० देवों के १४००० तथा नैर्ऋत्यकोण में बाह्य परिषद् के १६००० देवों के १६००० उत्तम आसन हैं । पश्चिम में सात अनीकाधिपतियों के सात उत्तम आसन हैं । उस सिंहासन की चारों दिशाओं में चौरासी चौरासी हजार आत्मरक्षक कुल ३३६००० उत्तम आसन हैं । इनसे सबकी विकुर्वणा कर पालक देव शक्रेन्द्र को निवेदित करता है। सूत्र - २२९ पालक देव द्वारा दिव्य यान की रचना को सुनकर शक्र मन में हर्षित होता है । जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है । सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्यानीक, गन्धर्वानीक के साथ उस यान-विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक सेविमान पर आरूढ होता है । पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है । उसी प्रकार सामानिक देव, बाकी के देव-देवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ होकर उसी तरह बैठ जात हैं । शक्र के यों विमानारूढ होने पर आगे आठ मंगलिक-द्रव्य प्रस्थित होते हैं । तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में समायोजित, प्रयाण-प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चँवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊंची, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय-वैजयन्ती से क्रमशः आगे प्रस्थान करते हैं। तदनन्तर छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल झारी, फिर वज्ररत्नमय, वर्तुलाकार, लष्ट, सुश्लिष्ट, परिघृष्ट, स्निग्ध, मृष्ट, मृदुल, सुप्रतिष्ठित, विशिष्ट, अनेक उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय-वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंग आकाश को छूते हुए से शिखर युक्त १००० योजन ऊंचा, अतिमहत् महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है । उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेष से युक्त, सुसज्जित, सर्वविध अलंकारों से विभूषित पाँच सेनाएं, पाँच सेनापति-देव प्रस्थान करते हैं। फिर बहुत से आभियोगिक देव-देवियाँ अपने-अपने रूप, नियोग-सहित देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे, पीछे यथाक्रम प्रस्थान करते हैं । तत्पश्चात् सौधर्मकल्पवासी अनेक देव-देवियाँ विमानारूढ होते हैं, देवेन्द्र, देवराज शक्र के आगे पीछे तथा दोनों ओर प्रस्थान करते हैं । इस प्रकार विमानस्थ देवराज शक्र पाँच सेनाओं से परिवृत्त ८४००० सामानिक देवों आदि से संपरिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि-के साथ, वाद्य-निनाद के साथ सौधर्मकल्प के बीचोंबीच होता हुआ, दिव्य देव-ऋद्धि उपदर्शित करता हुआ, जहाँ सौधर्मकल्प का उत्तरी निर्याण-मार्ग आता है, वहाँ आकर एक-एक लाख योजन-प्रमाण विग्रहों द्वारा आगे बढ़ता तिर्यक्-असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, आग्नेय कोणवर्ती रतिकर पर्वत है, वहाँ आता है। फिर शक्रेन्द्र दिव्य देव-ऋद्धि का दिव्य यान-विमान का प्रतिसंहरण करता है-जहाँ भगवान् तीर्थंकर का जन्म-भवन होता है, वहाँ आता है। तीन बार प्रदक्षिणा करता है । तीर्थंकर के जन्म-भवन के-ईशान कोण में अपने दिव्य विमान को भूमितल से चार अंगुल ऊंचा ठहराता है । उस दिव्य-यान से नीचे उतरता है यावत् सब नीचे उतरते हैं । तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अपने सहवर्ती देव-समुदाय से संपरिवृत, सर्व ऋद्धि-वैभव-समायुक्त, नगाड़ों के गूंजते हुए निर्घोष के साथ, तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है । देखते ही प्रणाम करता है, प्रदक्षिणा करता है | वैसा कर, हाथ जोड़, अंजलि बाँधे तीर्थंकर की माता को कहता है-रत्नकुक्षिधारिके, जगत्प्रदीपदायिके-आपको नमस्कार हो । आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ-हैं । मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर का मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 79

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