Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
नामक घण्टा को तीन बार बजाते हुए, जोर जोर से उद्घोषणा करते हुए कहो-वे जम्बूद्वीप में भगवान् का जन्ममहोत्सव मनाने जा रहे हैं । आप सभी अपनी सर्वविध ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर विभूति, विभूषा, नाटकनृत्य-गीतादि के साथ, किसी भी बाधा की परवाह न करते हुए सब प्रकार के पुष्पों, सुरभित पदार्थों, मालाओं तथा आभूषणों से विभूषित होकर दिव्य, तुमुल ध्वनि के साथ महती ऋद्धि यावत् उच्च, दिव्य वाद्यध्वनिपूर्वक अपनेअपने परिवार सहित अपने-अपने विमानों पर सवार होकर शक्र के समक्ष उपस्थित हों।
देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार आदेश दिये जाने पर हरिणेगमेषी देव हर्षित होता है, परितुष्ट होता है, आदेश स्वीकार कर शक्र के पास से निकलता है । सुघोषा घण्टा को तीन बार बजाता है । मेघसमूह के गर्जन की तरह गंभीर तथा अत्यन्त मधुर ध्वनि से युक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा घण्टा के तीन बार बजाये जाने पर सौधर्म कल्प में एक कम बत्तीस विमानों में एक कम बत्तीस लाख घण्टाएं एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं। सौधर्मकल्प के प्रासादों एवं विमानों के निष्कुट, कोनों में आपतित शब्द-वर्गणा के पुद्गल लाखों घण्टा-प्रतिध्वनियों के रूप में प्रकट होने लगते हैं । सौधर्मकल्प सुन्दर स्वरयुक्त घण्टाओं की विपुल ध्वनि से आपूर्ण हो जाता है । वहाँ निवास करनेवाले बहुत से वैमानिक देव, देवियाँ जो रतिसुख में प्रसक्त तथा प्रमत्त रहते हैं, मूर्च्छित रहते हैं, शीघ्र जागरित होते हैं-घोषणा सूनने हेतु उनमें कुतूहल उत्पन्न होता है, उसे सूनने में वे दत्तचित्त हो जाते हैं। जब घण्टा ध्वनि निःशान्त, प्रशान्त होता है, तब हरिणेगमेषी देव स्थान-स्थान पर जोर-जोर से उद्घोषणा करता कहता है
सौधर्मकल्पवासी बहुत से देवों ! देवियों ! आप सौधर्मकल्पपति का यह हितकर एवं सुखप्रद वचन सूनें, आप उन के समक्ष उपस्थित हों । यह सुनकर उन देवों, देवियों के हृदय हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। उनमें से कतिपय भगवान् तीर्थंकर के वन्दन-हेतु, कतिपय पूजन हेतु, कतिपय सत्कार, सम्मान, दर्शन की उत्सकुता, भक्ति-अनुरागवश तथा कतिपय परंपरानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं । देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियों को अविलम्ब अपने समक्ष उपस्थित देखता है । अपने पालक नामक आभियोगिक देवों को बुलाकर कहता है-देवानुप्रिय ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित, क्रीडोद्यत पुत्तलियों से कलित, ईहामृग-वृक, वृषभ, अश्व आदि के चित्रांकन से युक्त, खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिका द्वारा सुन्दर प्रतीयमान, संचरणशील सहजात पुरुष-युगल की ज्यों प्रतीत होते चित्रांकित विद्याधरों से समायुक्त, अपने पर जड़ी सहस्रो मणियों तथा रत्नों की प्रभा से सशोभित. हजारों रूपकों अतीव देदीप्यमान, नेत्रों में समा जानेवाले. सखमय स्पर्शयक्त, सश्रीक, घण्टियों की मधुर, मनोहर ध्वनि से युक्त, सुखमय, कमनीय, दर्शनीय, देदीप्यमान मणिरत्नमय घण्टिकाओं के समूह से परिव्याप्त, १००० योजन विस्तीर्ण, ५०० योजन ऊंचे, शीघ्रगामी, त्वरितगामी, अतिशय वेगयुक्त एवं प्रस्तुत कार्य-निर्वहण में सक्षम दिव्य विमान की विकर्वणा करो। सूत्र-२२८
देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर-पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है । वह वैक्रिय समुद्घात द्वारा यान-विमान की विकुर्वणा करता है । उस यान-विमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है । वह आलिंग-पुष्कर तथा शंकुसदृश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर समान किये गये चीते आदि के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है । वह भूमिभाग आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, वर्द्धमान, पुष्यमाणव, मत्स्य के अंडे, मगर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमलपत्र, सागर-तरंग वासन्तीलता एवं पद्मलता के चित्रांकन से युक्त, आभायुक्त, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त नानाविध पंचरंगी मणियों से सुशोभित हैं । उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक प्रेक्षागृह-मण्डप है । वह सैकड़ों खंभों पर टिका है, उस प्रेक्षामण्डप के ऊपर का भाग पद्मलता आदि के चित्रण से युक्त है, सर्वथा तपनीय-स्वर्णमय है, यावत् प्रतिरूप है।
उस मण्डप के भूमिभाग के बीचोंबीच एक मणिपीठिका है । वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी तथा चार योजन मोटी है, सर्वथा मणिमय है । उसके ऊपर एक विशाल सिंहासन है । उसके ऊपर एक सर्वरत्नमय, बृहत् विजयदूष्य है । उसके बीच में एक वज्ररत्नमय अंकुश है । वहाँ एक कुम्भिका-प्रमाण मोतियों की बृहत् माला है । वह मुक्ता मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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