Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र- ७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार-५- 'ज्योतिष्क'
वक्षस्कार / सूत्र
सूत्र - २१२
जब एक एक-किसी भी चक्रवर्ती-विजय में तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस काल - उस समय-अधोलोकवास्तव्या, महत्तरिका-आठ दिक्कुमारिकाएं, जो अपने कूटों, भवनों और प्रासादों में अपने ४००० सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, १६००० आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देवदेवियों से संपरिवृत्त, नृत्य, गीत, पटुता पूर्वक बजाये जाते वीणा, झींझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती है ।
सूत्र - २१३
वह आठ दिक्कुमारिका है- भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता ।
सूत्र - २१४
जब वे अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएं अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं । तीर्थंकर को देखती हैं। कहती हैं- जम्बूद्वीप में तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं । अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-अधोलोकवास्तव्या हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का यह परंपरागत आचार है कि हम भगवान् तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनाएं, अतः हम चलें, भगवान् का जन्मोत्सव आयोजित करें। यों कहकर आभियोगिक देवों को कहती हैं- देवानुप्रियों ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित सुन्दर यान - विमान की विकुर्वणा करो-वे आभियोगिक देव सैकड़ों खंभों पर अवस्थित यान - विमानों की रचना करते हैं, यह जानकर वे अधोलोकवास्तव्या गौरवशीला दिक्कुमारियाँ हर्षित एवं परितुष्ट होती हैं । उनमें से प्रत्येक अपने-अपने ४००० सामानिक देवों यावत् तथा अन्य अनेक देव-देवियों के साथ दिव्य यान- विमानों पर आरूढ होती हैं । सब प्रकार की ऋद्धि एवं द्युति से समायुक्त, बादल की ज्यों घहराते-गूंजते मृदंग, ढोल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्कृष्ट दिव्य गति द्वारा जहाँ तीर्थंकर का जन्मभवन होता है, वहाँ आती हैं । दिव्य विमानों में अवस्थित वे भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन की तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं । ईशान कोण में अपने विमानों को, जब वे भूतल से चार अंगुल ऊंचे रह जाते हैं, ठहराती हैं । ४००० सामानिक देवों यावत् देव-देवियों से संपरिवृत्त वे दिव्य विमानों से नीचे उतरती हैं ।
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सब प्रकारकी समृद्धि लिए, जहाँ तीर्थंकर तथा उनकी माता होती है, वहाँ आती हैं। तीन प्रदक्षिणाएं करती हैं, हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे, तीर्थंकरमाता से कहती हैं- 'रत्नकुक्षिधारिके, जगत्प्रदीपदायिके, हम आपको नमस्कार करती हैं । समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप, मूर्त्त, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद मार्ग उपदिष्ट करनेवाली, विभु, जिन, ज्ञानी, नायक, बुद्ध, बोधक, योग-क्षेमकारी, निर्मम, उत्तम कुल, क्षत्रिय-जाति में उद्भूत, लोकोत्तम की आप जननी हैं। आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ- हैं । अधोलोकनिवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएं भगवान् तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव मनायेंगी अतः आप भयभीत होना ।
यों कहकर वे ईशान कोण में जाती हैं । वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालती हैं । उन्हें संख्यात योजन तक दण्डाकार परिणत करती हैं । फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करती हैं, संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती हैं । उस शिव, मृदुल, अनुद्धूत, भूमितल को निर्मल, स्वच्छ करनेवाले, मनोहर, पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित, तिर्यक्, वायु द्वारा भगवान् तीर्थंकर के योजन परिमित परिमण्डल को चारों ओर से सम्मार्जित करती हैं । जैसे एक तरुण, बलिष्ठ, युगवान्, युवा, अल्पातंक, नीरोग, स्थिराग्रहस्त, दृढपाणिपाद, पृष्ठान्तोरुपरिणत्, अहीनांग, जिसके कंधे गठीले, वृत्त एवं वलित हुए, हृदय की ओर झुके हुए मांसल एवं सुष्ट हो, चमड़े के बन्धनों के युक्त मुद्गर आदि उपकरण ज्यों जिनके अंग मजबूत हों, दोनों भुजाएं दो एक-जैसे ताड़
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति)" आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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