Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
सिद्धार्थवन, जहाँ वे गमनोद्यत थे, की ओर जानेवाले राजमार्ग पर जल का छिड़काव कराया था । वह झाड़-बुहारकर स्वच्छ कराया हुआ था, सुरभित जल से सिक्त था, शुद्ध था, वह स्थान-स्थान पर पुष्पों से सजाया गया था, घोड़ों, हाथियों तथा रथों के समूह, पदातियों के पदाघात से-जमीन पर जमी हुई धूल धीरे-धीरे ऊपर की
ओर उड़ रही थी । इस प्रकार चलते वे सिद्धार्थवन उद्यान था, जहाँ उत्तम अशोकवृक्ष था, वहाँ आये । उस उत्तम वृक्ष के नीचे शिबिका को रखवाया, नीचे उतरकर स्वयं अपने गहने उतारे । स्वयं आस्थापूर्वक चार मुष्टियों द्वारा अपने केशों को लोच किया । निर्जन बेला किया । उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर अपने चार उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय के साथ एक देव-दूष्य ग्रहण कर मुण्डित होकर अगार से-अनगारिता में प्रव्रजित हो गये सूत्र-४४
कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे, तत्पश्चात् निर्वस्त्र । जब से वे प्रव्रजित हुए, वे कायिक परिकर्म रहित, दैहिक ममता से अतीत, देवकृत् यावत् जो उपसर्ग आते, उन्हें वे सम्यक् भाव से सहते, प्रतिकुल अथवा अनकल परिषह को भी अनासक्त भाव से सहते, क्षमाशील रहते, अविचल रहते। भगवान ऐसे उत्तम श्रमण थे कि वे गमन, हलन-चलन आदि क्रिया यावत् मल-मूत्र, खंखार, नाक आदि का मल त्यागनाइन पाँच समितियों से युक्त थे । वे मनसमित, वाकसमित तथा कायसमित थे । वे मनोगुप्त, यावत गुप्त ब्रह्मचारी, अक्रोध यावत् अलोभ, प्रशांत, उपशांत, परिनिर्वृत, छिन्न-स्रोत, निरुपलेप, कांसे के पात्र जैसे आसक्ति रहित, शंखवत् निरंजन, राग आदि की रंजकता से शून्य, जात्य विशोधित शुद्ध स्वर्ण के समान, जातरूप, दर्पणगत प्रतिबिम्ब की ज्यों प्रकट भाव- अनिगृहिताभिप्राय, प्रवंचना, छलना व कपट रहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय, कमल-पत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब, वायु की तरह निरालय, चन्द्र के सदृश सौम्यदर्शन, सूर्य के सदृश तेजस्वी, पक्षी की ज्यों अप्रतिबद्धगामी, समुद्र के समान गंभीर मंदराचल की ज्यों अकंप, सुस्थिर, पृथ्वी के समान सर्व स्पर्शों को समभाव से सहने में समर्थ, जीव के समान अप्रतिहत थे।
उन भगवान् ऋषभ के किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध नहीं थे । प्रतिबन्ध चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से । द्रव्य से जैसे-ये मेरे माता, पिता, भाई, बहिन यावत् चिरपरिचित जन हैं, ये मेरे चाँदी, सोना, उपकरण हैं, अथवा अन्य प्रकार से संक्षेप में जैसे ये मेरे सचित्त, अचित्त और मिश्र हैं-इस प्रकार इनमें भगवान् का प्रतिबन्ध नहीं था-क्षेत्र से ग्राम, नगर, अरण्य, खेत, खल या खलिहान, घर, आँगन इत्यादि में उनका प्रतिबन्ध नहीं था । काल से स्तोक, लव, मुहर्त्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर या और भी दीर्घकाल सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध उन्हें नहीं था । भाव से क्रोध, लोभ, भय, हास्य से उनका कोई लगाव नहीं था।
भगवान् ऋषभ वर्षावास के अतिरिक्त हेमन्त के महीनों तथा ग्रीष्मकाल के महीनों के अन्तर्गत् गाँव में एक रात, नगर में पाँच रात प्रवास करते हुए हास्य, शोक, रति, भय तथा परित्रास-से वर्जित, ममता रहित, अहंकार रहित, लघुभूत, अग्रन्थ, वसूले द्वारा देह की चमड़ी छीले जाने पर भी वैसा करनेवाले के प्रति द्वेष रहित एवं किसी के द्वारा चन्दन का लेप किये जाने पर भी उस और अनुराग या आसक्ति से रहित, पाषाण और स्वर्ण में एक समान भावयुक्त, इस लोक में और परलोक में अप्रतिबद्ध-अतृष्ण, जीवन और मरण की आकांक्षा से अतीत, संसार को पार करने में समुद्यत, जीव-प्रदेशों के साथ चले आ रहे कर्म-सम्बन्ध को विच्छिन्न कर डालने में अभ्युत्थित रहते हुए विहरणशील थे।
इस प्रकार विहार करते हुए-१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर पुरिमताल नगर के बाहर शकट मुख उद्यान में एक बरगद के वृक्ष के नीचे, ध्यानान्तरिका में फाल्गुण मास कृष्णपक्ष एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय, निर्जल तेले की तपस्या की स्थिति में चन्द्र संयोगाप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में अनुत्तर तप, बल, वीर्य, विहार, भावना, शान्ति, क्षमाशीलता, गुप्ति, मुक्ति, तुष्टि, आर्जव, मार्दव, लाघव, स्फूर्तिशीलता, सच्चारित्र्य के निर्वाण-मार्ग रूप उत्तम फल से आत्मा को भावित करते हुए उनके अनन्त, अविनाशी, अनुत्तर, निर्व्याघात, सर्वथा अप्रतिहत, निरावरण, कृत्स्न, सकलार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण, श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए । वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए । वे गति, मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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