Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मति द्वारा इसका भान हुआ। वे एक दूसरे के पास आये और कहने लगे -जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में भरत चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है । अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है कि वे राजा को उपहार भेंट करें । यह सोचकर विद्याधर राज विनमि ने चक्रवर्ती राजा भरत को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया । स्त्रीरत्न-सुभद्रा का शरीर मानोन्मान प्रमाणयुक्त था-वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी । वह स्थिर यौवन युक्त थी-शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे । उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे । वह बल-वृद्धिकारिणी थी-ग्रीष्म ऋतु में वह शीतस्पर्शी तथा शीत ऋतु में उष्णस्पर्शी थी। सूत्र-१०२
वह तीन स्थानों में कृश थी । तीन स्थानों में लाल थी । त्रिवलियुक्त थी । तीन स्थानों में-उन्नत थी । तीन स्थानों में गंभीर थी। तीन स्थानों में कृष्णवर्ण थी । तीन स्थानों में श्वेतता लिये थी । तीन स्थानों में लम्बाई लिये थी। तीन स्थानों में-चौड़ाई युक्त थी। सूत्र-१०३
वह समचौरस दैहिक संस्थानयुक्त थी । भरतक्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान-थी । उसके स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत-सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को आह्लादित करनेवाले थे, आकृष्ट करनेवाले थे । वह मानो शंगार-रस का आगार थी । लोक-व्यवहार में वह कुशल थी। वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी। वह सुखप्रद यौवन में विद्यमान थी । विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने हेतु रत्न, कटक तथा त्रुटित लिये । उत्कृष्ट त्वरित, तीव्र विद्याधर-गति द्वारा वे दोनों, राजा भरत था, वहाँ आये। वे आकाश में अवस्थित हए । उन्होंने जय-विजय शब्दों द्वारा राजा भरत को वर्धापित किया और कहा
हम आपके आज्ञानुवर्ती सेवक हैं । यह कहकर विनमि ने स्त्रीरत्न तथा नेमि ने रत्न, आभरण भेंट किये । राज भरत ने उपहार स्वीकार कर नमि एवं विनमि का सत्कार किया, सम्मान किया । विदा किया । यावत् अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित किया । पश्चात् दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकाला । उसने ईशान-कोण में गंगा देवी के भवन की ओर प्रयाण किया । शेष कथन सिन्धु देवी के प्रसंग समान है । विशेष यह की गंगा देवी ने राजा भरत को भेंट रूप में विविध रत्नों से युक्त १००८ कलश, स्वर्ण एवं विविध प्रकार की मणियों से चित्रित-दो सोने के सिंहासन विशेषरूप से उपहृत किये । फिर राजा ने अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित करवाया। सूत्र-१०४
तत्पश्चात् वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला । उसने गंगा महानदी के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा के खण्डप्रपात गुफा की ओर प्रयाण किया । तब राजा भरत खण्डप्रपात गुफा आया । शेष कथन तमिस्रा गुफा के अधिपति कृतमाल देव समान है । केवल इतना सा अन्तर है, खण्डप्रपात गुफा के अधिपति नृत्तमालक देव ने प्रीतिदान के रूप में राजा भरत को आभूषणों से भरा हुआ पात्र, कटक-भेंट किये । नृत्तमालक देव को विजय करने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया । शेष कथन सिन्धुदेवी समान है।
सेनापति सुषेण ने गंगा महानदी के पूर्वभागवर्ती कोण-प्रदेश को, जो पश्चिम में महानदी से, पूर्व में समुद्र से, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत से एवं उत्तर में लघु हिमवान् पर्वत से मर्यादित था, तथा सम-विषम अवान्तरक्षेत्रीय कोणवर्ती भागों को साधा । श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट में प्राप्त किये । वैसा कर सेनापति सुषेण गंगा महानदी आया । उसने निर्मल जल की ऊंची उछलती लहरों से युक्त गंगा महानदी को नौका के रूप में परिणत चर्मरत्न द्वारा सेना सहित पार किया । जहाँ राजा भरत था, वहाँ आकर आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे ऊतरा । उत्तम, श्रेष्ठ रत्न लिये, जहाँ दोनों हाथ जोड़े अंजलि बाँधे राजा भरत को जय-विजय समर्पित किए । राजा भरत ने सेनापति सुषेण द्वारा समर्पित रत्न स्वीकार कर सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया । विदा किया । शेष कथन पूर्ववत्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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