Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र में श्री देवी की चार महत्तरिकाओं के चार पद्म हैं । उनके आग्नेयकोण में भी देवी का आभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देवों के आठ हजार पद्म हैं । दक्षिण में श्री देवी की मध्यम परिषद् के १०००० देवों के १०००० पद्म हैं। नैर्ऋत्यकोण में श्री देवी की बाह्य परिषद् के १२००० देवों के १२००० पद्म हैं । पश्चिम में सात अनीका-धिपति के सात पद्म हैं । उस पद्म की चारों दिशाओं में सब ओर श्री देवी के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के १६००० पद्म हैं
वह मूल पद्म आभ्यन्तर, मध्यम तथा बाह्य तीन पद्म-परिक्षेपों-प्राचीरों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। आभ्यन्तर पद्म-परिक्षेप में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्म-परिक्षेप में चालीस लाख पद्म हैं, तथा बाह्य पद्मपरिक्षेप में अड़तालीस लाख पद्म हैं । इस प्रकार तीनों पद्म-परिक्षेपों में एक करोड़ बीस लाख पद्म हैं । भगवन् ! यह द्रह पद्मद्रह किस कारण कहलाता है ? गौतम ! पद्मद्रह में स्थान-स्थान पर बहुत से उत्पल यावत् शतसहस्रपत्र प्रभृति अनेकविध पद्म हैं । वे पद्म-कमल पद्मद्रह के सदृश आकारयुक्त, वर्णयुक्त एवं आभायुक्त हैं । इस कारण वह पद्मद्रह कहा जाता है । वहाँ परम ऋद्धिशालिनी पल्योपम-स्थितियुक्त श्री नामक देवी निवास करती है । अथवा गौतम ! पद्मद्रह नाम शाश्वत कहा गया है । वह कभी नष्ट नहीं होता। सूत्र-१२९
उस पद्मद्रह के पूर्वी तोरण-द्वार से गंगा महानदी निकलती है । वह पर्वत पर पाँच ५०० बहती है, गंगावर्त कूट के पास से वापस मुड़ती है, ५२३-३/१९ योजन दक्षिण की ओर बहती है । घड़े के मुँह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के बने हार के सदृश आकार में वह प्रपात-कुण्ड में गिरती है। उस समय उसका प्रवाह चुल्ल हिमवान् पर्वत के शिखर से प्रपात-कुण्ड तक कुछ अधिक सौ योजन होता है । जहाँ गंगा महानदी गिरती है, वहाँ एक जिबिका है । वह आधा योजन लम्बी तथा छह योजन एवं एक कोस चौड़ी है। वह आधा कोस मोटी है । उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुँह जैसा है । वह सम्पूर्णतः हीरकमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है । गंगा महानदी जिसमें गिरती है, उस कुण्ड का नाम गंगाप्रपातकुण्ड है । वह बहुत बड़ा है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई साठ योजन है । परिधि १९०० योजन से कुछ अधिक है।
वह दस योजन गहरा है, स्वच्छ एवं सुकोमल है, रजतमय कूलयुक्त है, समतल तटयुक्त है, हीरकमय पाषाणयुक्त है-पैदें में हीरे हैं । बालू स्वर्ण तथा शुभ्र रजतमय है । तट के निकटवर्ती उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि-बिल्लौर की पट्टियों से बने हैं । उसमें प्रवेश करने एवं बाहर निकलने के मार्ग सुखावह हैं । उसके घाट अनेक प्रकार की मणियों से बँधे हैं । वह गोलाकार है । उसमें विद्यमान जल उत्तरोत्तर गहरा और शीतल होता गया है । वह कमलों के पत्तों, कन्दों तथा नालों से परिव्याप्त है। अनेक उत्पल यावत् शत-सहस्र-पत्र-कमलों के प्रफुल्लित किञ्जल्क से सुशोभित है । वहाँ भौरे कमलों का परिभोग करते हैं । उसका जल स्वच्छ, निर्मल और पथ्य है । वह कुण्ड जल से आपूर्ण है । इधर-उधर घूमती हुई मछलियों, कछुओं तथा पक्षियों के समुन्नत-गुंजित रहता है, सुन्दर प्रतीत होता है। वह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है।
उस गंगाप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में-तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । उन सीढ़ियों के नेम-वज्ररत्नमय हैं । प्रतिष्ठान-रिष्टरत्नमय हैं । खंभे वैडूर्यरत्नमय हैं । फलक-सोने-चाँदी से बने हैं । सूचियाँ-लोहिताक्ष रत्न-निर्मित है । सन्धियाँ-वज्ररत्नमय हैं। आलम्बन-विविध प्रकार की मणियों से बने हैं। तीनों दिशाओं में विद्यमान उन तीनतीन सीढ़ियों के आगे तोरण-द्वार बने हैं। वे अनेकविध रत्नों से सज्जित हैं, मणिमय खंभो पर टिके हैं, सीढ़ियों के सन्निकटवर्ती हैं । उनमें बीच-बीच में विविध तारों के आकार में बहुत प्रकार के मोती जड़े हैं । वे ईहामृग, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरुसंज्ञक मृग, शरभ, चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकनों से सुशोभित है। उनके खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिकाएं हैं । उन पर चित्रित विद्याधर-युगल, एक आकारयुक्त कठपुतलियों की ज्यों संचरणशील से प्रतीत होते हैं । हजारों रत्नों की प्रभा से वे सुशोभित हैं । सहस्रों चित्रों से वे देदीप्यमान हैं, देखने मात्र से नेत्रों में समा जाते हैं । वे सुखमय स्पर्शयुक्त एवं शोभामय रूपयुक्त हैं । उन पर जो घंटियाँ लगी हैं, वे पवन से आन्दोलित होने पर बड़ा मधुर शब्द करती हैं, मनोरम प्रतीत होती हैं । उन तोरण-द्वारों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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