Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र सूत्र-९५ __आपकी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम-ये सब आश्चर्यकारक हैं | आपको दिव्य देव-द्युति-परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त है । हमने आपकी ऋद्धि का साक्षात् अनुभव किया है। देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमायाचना करते हैं। आप हमें क्षमा करें। हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे।
यों कहकर वे हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में गिर पड़े। फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वार भेंट के रूप में उपस्थापित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये । उन से कहा-तुम अब अपने स्थान पर जाओ । मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है । तुम निर्भय, निरुद्वेग, व्यथा रहित होकर सुखपूर्वक रहो । अब तुम्हें किसी से भी भय नहीं है। यों कहकर राजा भरत ने उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया । तब राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा-जाओ, पूर्वसाधित निष्कुट, सिन्धु महानदी के पश्चिम भागवर्ती कोण में विद्यमान, पश्चिम में सिन्धु महानदी तथा पश्चिमी समुद्र, उत्तर में क्षुल्ल हिमवान् पर्वत तथा दक्षिण में वैताढ्य पर्वत द्वारा मर्यादित-प्रदेश को, उसके, सम-विषम कोणस्थ स्थानों को साधित करो । वहाँ से उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में प्राप्त करो । यह सब कर मुझे शीघ्र ही अवगत कराओ। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना । सूत्र-९६
तत्पश्चात् वह दिव्य चक्ररत्न शास्त्रागार से बाहर निकला, ईसान-कोण में लघु हिमवान् पर्वत की ओर
परत ने क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से कुछ ही दूरी पर सैन्य-शिबिर स्थापित किया । उसने क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या की । शेष कथन मागधतीर्थ समान जानना । राजा भरत क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत आया । उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित किया । यावत् राजा भरत द्वारा ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव की मर्यादा मेंगिरा । यावत् उसने प्रीतिदान-रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन, कटक, पद्मद्रह का जल लिया । राजा भरत के पास आकर बोला-मैं क्षुद्र हिमवान पर्वत की सीमा में आपके देश का वासी हँ । मैं आपका आज्ञानुवर्ती सेवक हूँ । उत्तर दिशा का अन्तपाल हूँ-आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें । राजा भरत ने क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गए उपहार स्वीकार करके देव को विदा किया। सूत्र - ९७-१००
तत्पश्चात् राजा भरत ने अपने रथ के घोड़ों को नियन्त्रित किया । रथ को वापस मोड़ा । ऋषभकूट पर्वत आया । रथ के अग्र भाग से तीन बार ऋषभकूट पर्वत का स्पर्श किया । काकणी रत्न का स्पर्श किया । वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर, नीचे छह तलयुक्त था । यावत् अष्टस्वर्णमानपरिमाण था । राजा ने काकणी रत्न का स्पर्श कर ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय कटक में नामांकन किया
इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक के पश्चिम भाग में-मैं भरत चक्रवर्ती हुआ हूँ। मैं भरतक्षेत्र का प्रथम राजा-हूँ, अधिपति हूँ, नरवरेन्द्र हूँ। मेरा कोई प्रतिशत्रु नहीं है । मैंने भरतक्षेत्र को जीत लिया है।
वैसा कर अपने रथ को वापस मोड़ा । अपना सैन्य-शिबिर था, वहाँ आया । यावत् क्षुद्र हिमवान्गिरिकुमार देव को विजय करने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला । दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रयाण किया। सूत्र-१०१
राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर जाते हुए देखा । वह वैताढ्य पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटो में आया । वहाँ सैन्यशिबिर स्थापित किया । पौषधशाला में प्रविष्ट हआ । श्रीऋषभस्वामी के कच्छ तथा महाकच्छ नामक प्रधान सामन्तों के पुत्र नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को उद्दिष्ट कर तेला किया । नमि, विनमि विद्याधर राजाओं का मन में ध्यान करता हुआ वह स्थित रहा । तब नमि,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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