Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
घोड़े जोते जाते थे । सुयोग्य सारथि द्वारा सुनियोजित था । उत्तमोत्तम रत्नों से परिमंडित था । सोने की घण्टियों से शोभित था । वह अयोध्य था, उसका रंग विद्युत, परितप्त स्वर्ण, कलम, जपाकुसुम, दीप्त अग्नि तथा तोते की चाँच जैसा था । उसकी प्रभा धुंघची के अर्ध भाग, बन्धुजीवक पुष्प, सम्मर्दित हिंगुल-राशि, सिन्दूर, श्रेष्ठ केसर, कबूतर के पैर, कोयल की आँखें, अधरोष्ठ, मनोहर रक्ताशोक तरु, स्वर्ण, पलाशपुष्प, हाथी के तालु, इन्द्रगोपक जैसी थी। कांति बिम्बफल, शिलाप्रवाल एवं उदीयमान सूर्य के सदृश थी । सब ऋतुओं में विकसित होनेवाले पुष्पों की मालाएं लगी थीं । उन्नत श्वेत ध्वजा फहरा रही थी । उस का घोष गम्भीर था, शत्रु के हृदय को कँपा देनेवाला था । लोकविश्रुत यशस्वी राजा भरत प्रातःकाल पौषध पारित कर उस सर्व अवयवों से युक्त चातुर्घण्ट 'पृथ्वीविजयलाभ' नामक अश्वरथ पर आरूढ हुआ । शेष पूर्ववत् ।
राजा भरत ने पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए वरदाम तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया । शेष कथन मागध तीर्थकुमार समान जानना । वरदाम तीर्थकुमार ने राजा भरत को दिव्य, सर्व विषापहारी चूडामणि, वक्षःस्थल और गले के अलंकार, मेखला, कटक, त्रुटित भेंट किये और कहा कि मैं आपका दक्षिण दिशा का अन्तपाल हैं। इस विजय के उपलक्ष्य में राजा की आज्ञा के अनुसार अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ । महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला । आकाश में अधर अवस्थित हुआ । वह एक हजार यक्षों से परिवृत्त था । दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनमण्डल को आपूरित करते हुए उसने उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रभास तीर्थ की ओर होते हुए प्रयाण किया।
राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए, उत्तर-पश्चिम दिशा होते हुए, पश्चिम में, प्रभास तीर्थ की ओर जाते हए, अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। शेष कथन पूर्ववत् । प्रभासतीर्थकुमार ने भी प्रीतिदान के रूप में भेंट करने हेतु रत्नों की माला, मुकुट यावत् राजा भरत के नाम से अंकित बाण तथा प्रभासतीर्थ का जल दिया- और कहा-मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ, पश्चिम दिशा का अन्तपाल हूँ । शेष पूर्ववत् जानना । सूत्र-७४
प्रभास तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला । यावत् उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर प्रयाण किया । राजा भरत बहुत हर्षित हुआ, परितुष्ट हुआ । जहाँ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया । सिन्धु देवी के भवन के थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर के सदृश सैन्य-शिबिर स्थापित किया । यावत् सिन्धु देवी की साधना हेतु तेल किया । पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया । यावत यों डाभ के बिछौने पर उपगत, तेले की तपस्या में अभिरत भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ । सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ।
सिन्धु देवी ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया । भरत को देखा, देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। यावत् देवी रत्नमय १००८ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नाञ्चित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, त्रुटित तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक यहाँ आई और बोली-आपने भरतक्षेत्र को विजय कर लिया है। मैं आपके देश में-आज्ञा-कारिणी सेविका हूँ । देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत उपहार आप ग्रहण करें । शेष पूर्ववत् । यावत् पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठना । सिंहासन पर बैठकर अपने अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा कि अष्टदिवसीय महोत्सव का आयोजन करो। सूत्र-७५
सिन्धुदेवी के विजयोपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पूर्ववत्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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