Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 37
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र वह कौन है, जो हमारे देश पर बलपूर्वक जल्दी-जल्दी चढ़ा आ रहा है। हम उसकी सेना को तितर-भितर कर दें, जिससे वह आक्रमण न कर सके । इस प्रकार उन्होंने मुकाबला करने का निश्चय किया । ___ लोहे के कवच धारण किये, वे युद्धार्थ तत्पर हुए, अपने धनुषों पर प्रत्यंचा चढ़ा कर उन्हें हाथ में लिया, गले पर ग्रैवेयक-बाँधे, विशिष्ट वीरता सूचक चिह्न के रूप में उज्ज्वल वस्त्र-विशेष मस्तक-पर बाँधे । विविध प्रकार के आयुध, तलवार आदि शस्त्र धारण किये । वे जहाँ राजा भरत की सेना का अग्रभाग था वहाँ पहुँचकर वे उससे भिड़ गये । उन आपात किरातों ने राजा भरत की सेना के अग्रभाग के कतिपय विशिष्ट योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला, घायल कर डाला, गिरा डाला । उनकी गरुड आदि चिह्नों से युक्त ध्वजाएं, पताकाएं नष्ट कर डालीं । राजा भरत की सेना के अग्रभाग के सैनिक बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर इधर-उधर भाग छुटे । सूत्र-८१ सेनापति सुषेण ने राजा भरत के सैन्य के अग्रभाग के अनेक योद्धाओं को आपात किरातों द्वारा हत, मथित देखा । सैनिकों को भागते देखा । सेनापति सुषेण तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, विकराल एवं कुपित हुआ। वह मिसमिसाहट करता हुआ-कमलामेल नामक अश्वरत्न पर-आरूढ़ हुआ । वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊंचा था, निन्यानवे अंगुल मध्य परिधियुक्त था, एक सौ आठ अंगुल लम्बा था । उसका मस्तक बत्तीस अंगुल-प्रमाण था । उसके कान चार अंगुल प्रमाण थे । उसकी बाहा-बीस अंगुल था । उसके घुटने चार अंगुल-प्रमाण थे । जंघासोलह अंगुल थी । खुर चार अंगुल ऊंचे थे । देह का मध्य भाग मुक्तोली-सदृश गोल तथा वलित था । पीठ उपर ज सवार बैठता, तब वह कुछ कम एक अंगुल झुक जाती थी। पीठ क्रमशः देहानुरूप अभिनत थी, देह-प्रमाण के अनुरूप थी, सुजात थी, प्रशस्त थी, शालिहोत्रशास्त्र निरूपित लक्षणों के अनुरूप थी, विशिष्ट थी । हरिणी के जानु-ज्यों उन्नत थी, दोनों पार्श्व-भागों में विस्तृत तथा चरम भाग में स्तब्ध थी । उसका शरीर वेत्र, लता, कशा आदि के प्रहारों से परिवर्जित था-घुड़सवार के मनोनुकूल चलते रहने के कारण उसे बेंत, छड़ी, चाबुक आदि से तर्जित करना, ताडित करना सर्वथा अनपेक्षित था । लगाम स्वर्ण में जड़े दर्पण जैसा आकार लिये अश्वोचित स्वर्णाभरणों से युक्त थी । काठी बाँधने हेतु प्रयोजनीय रस्सी, उत्तम स्वर्णघटित सुन्दर पुष्पों तथा दर्पणों से समायुक्त थी, विविध रत्नमय थी। उसकी पीठ, स्वर्णयुक्त मणि-रचित तथा केवल स्वर्ण-निर्मित पत्रकसंज्ञक आभूषण जिनके बीच-बीच में जड़े थे, ऐसी नाना प्रकार की घंटियों और मोतियों की लड़ियों से परिमंडित थी, वह अश्व बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था । मुखालंकरण हेतु कर्केतन मणि, इन्द्रनील मणि, मरकत मणि आदि रत्नों द्वारा रचित एवं माणिक के साथ आवद्धि-से वह विभूषित था । स्वर्णमय कमल के तिलक से उसका मुख सुसज्ज था। वह अश्व देवमति से-विरचित था । वह देवराज इन्द्र की सवारी के उच्चैःश्रवा नामक अश्व के समान गतिशील तथा सुन्दर रूप युक्त था । अपने मस्तक, गले, ललाट, मौलि एवं दोनों कानों के मूल में विनिवेशित पाँच चँवरों को धारण किये था । वह अनभ्रचारी था-उसकी अन्यान्य विशेषताएं उच्चैःश्रवा जैसी ही थी। उसकी आँखें विकसित थीं, दृढ़ थीं, रोमयुक्त थीं । डांस, मच्छर आदि से रक्षा हेतु उस पर लगाये गये प्रच्छादनपट में स्वर्ण के तार गुंथे थे । तालु तथा जिह्वा तपाये हुए स्वर्ण की ज्यों लाल थे । नासिका पर लक्ष्मी के अभिषेक का चिह्न था । जलगत कमल-पत्र जैसे वायु द्वारा आहत पानी की बूंदों से युक्त होकर सुन्दर प्रतीत होता है, उसी प्रकार वह अश्व अपने शरीर के लावण्य से बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था । वह अचंचल था-उसके शरीर में स्फूर्ति थी । वह अश्व अपवित्र स्थानों को छोड़ता हुआ उत्तम एवं सुगम मार्ग द्वारा चलने की वृत्ति वाला था । अपने खुरों की टापों से भूमितल को अभिहत करता हुआ चलता था । अपने आरोहक द्वारा नचाये जाने पर वह अपने आगे के दोनों पैर एक साथ इस प्रकार ऊपर उठाता था, जिससे ऐसा प्रतीत होता, मानो उसके दोनों पैर एक ही साथ उसके मुख से निकल रहे हों । उसकी गति लाघवयुक्त-थी था-वह जल में भी स्थल की ज्यों शीघ्रता से चलने में समर्थ था। वह प्रशस्त बारह आवर्तों से युक्त था, जिनसे उसके उत्तम जाति, कुल तथा रूप का परिचय मिलता था । शास्त्रोक्त उत्तम कुल प्रसूत था । मेघावी-था । भद्र एवं विनीत था, उसके रोम अति सूक्ष्म, सुकोमल एवं मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 37

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