Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 19
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र आगति, कार्य-स्थिति, भव-स्थिति, मुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आविष्कर्म, रहःकर्म, योग आदि के, जीवों तथा अजीवों के समस्त भावों के, मोक्ष-मार्ग के प्रति विशुद्ध भाव-इन सब के ज्ञाता, द्रष्टा हो गए । भगवान् ऋषभ निर्ग्रन्थों, निर्ग्रन्थियों को-पाँच महाव्रतों, उनकी भावनाओं तथा जीव-निकायों का उपदेश देते हुए विचरण करते थे। कौशलिक अर्हत् ऋषभ के चौरासी गण, चौरासी गणधर, ऋषभसेन आदि ८४००० श्रमण, ब्राह्मी, सुन्दरी आदि तीन लाख आर्यिकाएं, श्रेयांस आदि तीन लाख पाँच हजार श्रमणोपासक, सुभद्रा आदि पाँच लाख चौवन हजार श्रमणोपासिकाएं, जिन नहीं पर जिनसदृश सर्वाक्षर-संयोग-वेत्ता जिनवत् अवितथ-निरूपक ४७५० चतुर्दशपूर्वधर, ९००० अवधिज्ञानी, २०००० जिन, २०६०० वैक्रियलब्धिधर, १२६५० विपुलमति-मनःपर्यवज्ञानी, १२६५० वादी तथा गति-कल्याणक, स्थितिकल्याणक, आगमिष्यद्भद्र, अनुत्तरौपपातिक २२९०० मुनि थे । कौशलिक अर्हत् ऋषभ के २०००० श्रमणों तथा ४०००० श्रमणियों ने सिद्धत्व प्राप्त किया-भगवान् ऋषभ के अनेक अंतेवासी अनगार थे । उनमें कईं एक मास यावत् कईं अनेक वर्ष के दीक्षा-पर्याय के थे । उनमें अनेक अनगार अपने दोनों घुटनों को ऊंचा उठाए, मस्तक को नीचा किये-ध्यान रूप कोष्ठ में प्रविष्ट थे। इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा में गतिशील थे। भगवान् ऋषभ की दो प्रकार की भूमि थी-युगान्तकर-भूमि तथा पर्यायान्तकर-भूमि । युगान्तकर-भूमि यावत् असंख्यात पुरुष-परम्परा-परिमित थी तथा पर्यायान्तकर भूमि अन्तमुहूर्त थी। सूत्र-४५ भगवान् ऋषभ के जीवन में पाँच उत्तराषाढा नक्षत्र तथा एक अभिजित् नक्षत्र से सम्बद्ध घटनाएं हैं । चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में उनका च्यवन-हुआ । उसी में जन्म हुआ । राज्याभिषेक हुआ । मुंडित होकर, घर छोड़कर अनगार बने । उसीमें केवलज्ञान, केवलदर्शन समुत्पन्न हुआ । भगवान् अभिजित नक्षत्र में परिनिवृत्त हुए । सूत्र-४६ __ कौशलिक भगवान् ऋषभ वज्रऋषभनाराचसंहनन युक्त, समचौरससंस्थानसंस्थित तथा ५०० धनुष दैहिक ऊंचाई युक्त थे । वे २० लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा ६३ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे । यों ८३ लाख पूर्व गृहवास में रहे । तत्पश्चात् मुंडित होकर अगारवास से अनगार-धर्म में प्रव्रजित हुए । १००० वर्ष छद्मस्थ-पर्याय में रहे । १००० वर्ष कम एक लाख पूर्व वे केवली-पर्याय में रहे । इस प्रकार एक लाख पूर्व तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर-चौरासी लाख पूर्व का परिपूर्ण आयुष्य भोगकर हेमन्त के तीसरे मास में, पाँचवे पक्ष में-माघ मास कृष्ण पक्ष में तेरस के दिन १०००० साधुओं से संपरिवृत्त अष्टापद पर्वत के शिखर पर छह दिनों के निर्जल उपवासमें पर्वाह्न-काल में पर्यंकासन में अवस्थित, चन्द्र योग युक्त अभिजित् नक्षत्र में, जब सुषम-दुःषमा आरक में नवासी पक्ष बाकी थे, वे जन्म, जरा, मृत्यु के बन्धन छिन्नकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अंतकृत्, परिनिर्वृत्त सर्व-दुःख रहित हुए। जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, वृद्ध तथा सर्व दुःख-विरहित हुए, उस समय देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित हुआ । अवधिज्ञान का प्रयोग किया, भगवान् तीर्थंकर को देखकर वह यों बोला-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत् भरतक्षेत्र में कौशलिक, अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अतः अतीत, वर्तमान, अनागत देवराजों, देवेन्द्रों, शक्रों का यह जीत है कि वे तीर्थंकरों के परिनिर्वाण महोत्सव मनाएं । इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण-महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊं । यों सोचकर देवेन्द्र वन्दन-नमस्कार कर अपने ८४००० सामानिक देवों, ३३००० त्रायस्त्रिंशक देवों, परिवारोपेत अपनी आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों दिशाओं के ८४-८४ हजार आत्मरक्षक देवों और भी अन्य बहुत से सौधर्मकल्पवासी देवों एवं देवियों से संपरिवृत्त, उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चंड, जवन, उद्धत, शीघ्र तथा दिव्य गति से तिर्यक्-लोकवर्ती असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ जहाँ अष्टापद मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 19

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