Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 17
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र भगवन् ! उस आरक के पश्चिम त्रिभाग-में-भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस का भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होता है । यावत् कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है । उस आरक के अंतिम तीसरे भाग से भरतक्षेत्र में मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उन मनुष्यों के छहों प्रकार के संहनन, छहों प्रकार के संस्थान, शरीर की ऊंचाई सैकड़ों धनुष-परिमाण, आयुष्य जघन्यतः संख्यात वर्षों का तथा उत्कृष्टतः असंख्यात वर्षों का होता है। आयुष्य पूर्ण कर उनमें से कईं नरक-गति में, कईं तिर्यंच-गति में, कईं मनुष्य-गति में, कईं देव-गति में उत्पन्न होते हैं और सिद्ध होते हैं । यावत् समग्र दुःखों का अन्त करते हैं । सूत्र-४१ उस आरक के अंतिम तीसरे भाग के समाप्त होने में जब एक पल्योपम का आठवां भाग अवशिष्ट रहता है तो ये पन्द्रह कुलकर उत्पन्न होते हैं-सुमति, प्रतिश्रुति, सीमंकर, सीमन्धर, क्षेमंकर, क्षेमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वान्, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, प्रसेनजित्, मरुदेव, नाभि, ऋषभ । सूत्र-४२ उन पन्द्रह कुलकरों में से सुमति, प्रतिश्रुति, सीमंकर, सीमन्धर तथा क्षेमंकर-इन पाँच कुलकरों की हकार नामक दंड़-नीति होती है । वे मनुष्य हकार-दंड़ से अभिहत होकर लज्जित, विलज्जित, व्यर्द्ध, भीतियुक्त, निःशब्द तथा विनयावनत हो जाते हैं । उनमें से क्षेमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वान् तथा अभिचन्द्र-इन पाँच कुलकरों की मकार दण्डनीति होती है। वे मनुष्य मकार-रूप दण्ड से लज्जित इत्यादि हो जाते हैं । उनमें से चन्द्राभ, प्रसेनजित्, मरुदेव, नाभि तथा ऋषभ-इन पाँच कुलकरों की धिक्कार नीति होती है । वे मनुष्य धिक्कार' -रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं। सूत्र-४३ नाभि कुलकर के, उन की भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत, कौशलिक, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुर्दिग्व्याप्त अथवा चार गतियों का अन्त करने में सक्षम धर्मसाम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए । कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार-अवस्था में व्यतीत किए। तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहते हुए उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की बोली तक का जिनमें पुरुषों की बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौंसठ गुणों तथा सौ प्रकार के कार्मिक शिल्पविज्ञान का समावश है, प्रजा के हित के लिए उपदेश किया। अपने सौ पुत्रों को सौ राज्यों में अभिषिक्त किया । वे तियासी लाख पूर्व गृहस्थ-वास में रहे। ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास-चैत्र मास में प्रथम पक्ष-कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि के उत्तरार्ध में मध्याह्न के पश्चात् रजत, स्वर्ण, कोश, कोष्ठागार, बल, सेना, वाहन, पुर, अन्तःपुर, धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, राजपट्ट आदि, प्रवाल, पद्मराग आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर, उनसे ममत्व भाग हटाकर अपने दायिक, जनों में बंटवारा कर वे सुदर्शना नामक शिबिका में बैठे । देवों, मनुष्यों तथा असुरों की परिषद् उनके साथसाथ चली । शांखिक, चाक्रिक, लांगलिक, मुखमांगलिक, पुष्पमाणव, भाग, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक, आख्यायक, लंख, मंख, घाण्टिक, पीछे-पीछे चले । वे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, उदार, दृष्टि से वैशययुक्त, कल्याण, शिव, धन्य, मांगल्य, सश्रीक, हृदयगमनीय, सुबोध, हृदय प्रह्लादनीय, कर्ण-मननिर्वृतिकार, अनुपरुक्त, अर्थशतिक, वाणी द्वारा वे निरन्तर उनका इस प्रकार अभिनन्दन तथा अभिस्तवन करते थे-जगन्नंद ! भद्र ! प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपकी जय हो । आप धर्म के प्रभाव से परिषहों एवं उपसर्गों से अभीत रहें, भय, भैरव का सहिष्णुता पूर्वक सामना करने में सक्षम रहें । आपकी धर्मसाधना निर्विघ्न हो । उन आकुल पौरजनों के शब्दों से आकाश आपूर्ण था । इस स्थिति में भगवान् ऋषभ राजधानी के बीचोंबीच होते हुए निकले । सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार उनके दर्शन कर रहे थे, यावत् वे घरों की हजारों पंक्तियों को लांघते हुए आगे बढ़े। मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 17

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