Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
सूत्र-६१
अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधगृहशाला-से निकला । निकलकर आकाश में प्रतिपन्न हुआ । वह एक सहस्र यक्षों से संपरिवृत था । दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था । वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के बीच से निकला । निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर चला । राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर बढ़ते हुए देखा, वह हर्षित व परितुष्ट हुआ, उसके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-आभिषेक्य-हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो । घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो । यथावत् आज्ञापालन कर मुझे सूचित करो।
तत्पश्चात् राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । वह स्नानघर मुक्ताजाल युक्त-झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था । यावत् वह राजा स्नानघर से निकला । निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा योद्धाओं के विस्तार से युक्त सेना से सुशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, आभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ आया और अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल गजपति पर आरूढ हुआ।
भरताधिप-राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था । उसका मुख कुंडलों से उद्योतित था । मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था । नरसिंह, नरपति, परिपालक, नरेन्द्र, परम ऐश्वर्यशाली अभिनायक, नरवृषभ, कार्यभार के निर्वाहक, मरुद्राजवृषभ-कल्प, इन्द्रों के मध्य वृषभ सदृश, दीप्तिमय, वंदिजनों द्वारा संस्तुत, जयनाद से सुशोभित, गजारूढ राजा भरत सहस्रों यक्षों से संपरिवृत धनपति यक्षराज कुबेर सदृश लगता था । देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि थी, जिससे उसका यश सर्वत्र विश्रुत था । कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था । श्रेष्ठ, श्वेत चँवर इलाये जा रहे थे।
राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ सहस्रों ग्राम, यावत् संबाध-से सुशोभित, प्रजाजन युक्त पृथ्वी को-जीतता हुआ, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में ग्रहण करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआ, एक-एक योजन पर अपने पड़ाव डालता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआ जहाँ मागध तीर्थ था, वहाँ आया । आकर मागध तीर्थ के न अधिक दूर, न अधिक समीप, बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा उत्तम नगर जैसा विजय स्कन्धावार लगाया । फिर राजा ने वर्धकिरत्न-को बुलाकर कहा
देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवास-स्थान एवं पोषधशाला का निर्माण करो । उसने राजा के लिए आवास-स्थान तथा पोषधशाला का निर्माण किया । तब राज भरत आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा । पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ, पोषधशाला का प्रमार्जन किया, सफाई की । डाभ का बिछौना बिछाया । उस पर बैठा। मागध तीर्थकुमार देव को उद्दिष्ट कर तत्साधना हेतु तेल की तपस्या की । पोषधशाला में पोषध लिया । आभूषण शरीर से उतार दिये । माला, वर्णक आदि दूर किये, शस्त्र, मूसल आदि हथियार एक ओर रखे । यों डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत निर्भीकता-से आत्मबलपूर्वक तेले की तपस्या में प्रतिजागरित हुआ । तपस्या पूर्ण होने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-घोड़े, हाथी, रथ एवं उत्तम योद्धाओंसे सशोभित चतरंगिणी सेना शीघ्र ससज्ज करो । चातर्घट-अश्वरथ तैयार करो । स्नानादि से निवत्त होकर राजा स्नानघर से निकला । घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा सेना से सुशोभित वह राजा रथारूढ हुआ । सूत्र - ६२
तत्पश्चात् राज भरत चातुर्घट-अश्वरथ पर सवार हुआ । वह घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था । बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह साथ चल रहा था । हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा पीछेपीछे चल रहे थे । चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा था । उस के द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो । उसने पूर्व दिशा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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