Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र अनेक घट परिमित घृत एवं मधु डालो । तब उन भवनपति आदि देवों ने घृत एवं मधु डाला।
देवराज शक्रेन्द्र ने मेघकुमार देवों को कहा-देवानुप्रियों ! तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता को क्षीरोदक से निर्वापित करो । मेघकुमार देवों ने निर्वापित किया । तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान् तीर्थंकर के ऊपर की दाहिनी डाढ़ ली । असुराधिपति चमरेन्द्र ने नीचे की दाहिनी डाढ़ ली । वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली ने नीचे की बाई डाढ़ ली । बाकी के भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने यथायोग्य अंगों की हड्डियाँ लीं । कईयों ने जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से, कईंयों ने यह समुचित पुरातन परंपरानुगत व्यवहार है, यह सोचकर तथा कईयों ने इसे अपना धर्म मानकर ऐसा किया । तदनन्तर देवराज, देवेन्द्र शक्र ने भवनपति एवं वैमानिक आदि देवों को यथायोग्य यों कहा-देवानुप्रियों ! तीन सर्व रत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण करो-एक भगवान् तीर्थंकर के, एक गणधरों के, तथा एक अवशेष अनगारों के चिता-स्थान पर । उन बहुत से देवों ने वैसा ही किया । फिर उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने तीर्थंकर भगवान का परिनिर्वाण महोत्सव मनाया । वे नन्दीश्वर द्वीप में आ गये।
देवराज, देवेन्द्र शक्र ने पूर्व दिशा में स्थित अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। देवराज, देवेन्द्र शक्र के चार लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों पर, देवराज ईशानेन्द्र ने उत्तरदिशावर्ती अंजनक पर्वत पर, उसके लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों पर, चमरेन्द्र ने दक्षिण दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर, उसके लोकपालों ने पर्वतों पर, बलि ने पश्चिम दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर और उसके लोकपालों ने दधिमुख पर्वतों पर परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया । इस प्रकार बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर आदि ने अष्टदिवसीय महोत्सव मनाये । ऐसा कर वे जहाँ-तहाँ अपने विमान, भवन, सुधर्मासभाएं तथा अपने माणवक नामक चैत्यस्तंभ थे, वहाँ आये । आकर जिनेश्वर देव की डाढ़ आदि अस्थियों को वज्रमय समुद्गक में रखा । अभिनव, उत्तम मालाओं तथा सुगन्धित द्रव्यों से अर्चना की। अपने विपुल सुखोपभोगमय जीवन में धुलमिल गये। सूत्र-४७
गौतम ! तीसरे आरक का दो सागरोपम कोड़ाकोड़ी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम -सुषमा नामक चौथा आरक प्रारम्भ होता है । उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है । भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है यावत् मणियों से उपशोभित होता है।
उस समय मनुष्यों का आकार स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन होते हैं, छह प्रकार के संस्थान होते हैं । उनकी ऊंचाई अनेक धनुष-प्रमाण होती है । जघन्य अन्तमुहूर्त का तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि का आयुष्य भोगकर उनमें से कईं नरक-गति में, यावत् कईं देव-गति में जाते हैं, कईं सिद्ध, बुद्ध होकर समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । उस काल में तीन वंश उत्पन्न होते हैं-अर्हत्-वंश, चक्रवर्ती-वंश तथा दशारवंशबलदेव-वासुदेव-वंश । उस काल में तेईस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव तथा नौ वासुदेव उत्पन्न होते हैं। सूत्र-४८
गौतम ! चतुर्थ आरक के ४२००० वर्ष कम एक सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी-काल का दुःषमा नामक पंचम आरक प्रारंभ होता है । उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है । भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र का कैसा आकार-स्वरूप होता है ? गौतम ! भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है यावत् मणियों द्वारा उपशोभित होता है ।
उस काल में भरतक्षेत्र के मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र के मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होते हैं । उनकी ऊंचाई सात हाथ की होती है । वे जघन्य अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक सौ वर्ष के आयुष्य का भोग करते हैं । कईं नरक-गति में, यावत् तिर्यंच देव-गति में परिनिवृत्त होते हैं । उस काल के अन्तिम तीसरे भाग में गणधर्म, पाखण्ड-धर्म, राजधर्म, जाततेज तथा चारित्र-धर्म
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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