Book Title: Agam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र लक्षण युक्त, विकृत उदर रहित, त्रिवली युक्त, गोलाकार एवं पतले थे । उन की रोमराजियाँ सरल, सम, संहित, उत्तम, पतली, कृष्ण वर्णयुक्त, चिकनी, आदेय, लालित्यपूर्ण, तथा सुरचित, सुविभक्त, कान्त, शोभित और रुचिकर थीं । नाभि गंगा के भंवर की तरह गोल, घुमावदार, सुन्दर, विकसित होते कमलों के समान विकट थीं । उन के कुक्षिप्रदेश, अस्पष्ट, प्रशस्त थे । पसवाडे सन्नत, संगत, सुनिष्पन्न, मनोहर थे । देहयष्टियाँ मांसलता लिए थीं, वे देदीप्यमान, निर्मल, सुनिर्मित, निरुपहत थीं । उनके स्तन स्वर्ण-घट सदृश थे, परस्पर समान, संहित से, सुन्दर अग्रभाग युक्त, सम श्रेणिक, गोलाकार, अभ्युन्नत, कठोर तथा स्थूल थे । भुजाएं सर्प की ज्यों क्रमशः नीचे की ओर पतली, गाय की पूँछ की ज्यों गोल, परस्पर समान, नमित आदेय तथा सुललित थीं । नख तांबे की ज्यों कुछ-कुछ लाल थे । यावत् वे सुन्दर, दर्शनीया, अभिरूपा एवं प्रतिरूपा थी।
भरतक्षेत्र के मनुष्य ओघस्वर, मधुर स्वर युक्त, क्रौंच स्वर से युक्त तथा नन्दी स्वर युक्त थे । उनका स्वर एवं घोष या गर्जना सिंह जैसी जोशीली थी । स्वर तथा घोष में निराली शोभा थी । देह में अंग-अंग प्रभा से उद्योतित थे। वे वज्रऋषभनाराच संहनन, समचौरस संस्थानवाले थे । चमड़ी में किसी प्रकार का आतंक नहीं था। वे देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय से युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचनशक्ति वाले थे। उनके आपान-स्थान पक्षी की ज्यों निर्लेप थे । उन के पृष्ठभाग तथा ऊरु सुदृढ़ थे । वे छह हजार धनुष ऊंचे होते थे। मनुष्यों की पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती थीं। उनकी साँस पद्म एवं उत्पल की-सी अथवा पद्म तथा कुष्ठ नामक गन्ध-द्रव्यों की-सी सुगन्ध लिए होती थी, जिससे उन के मुँह सदा सुवासित रहते थे । वे मनष्य शान्त प्रकति के थे । उन के जीवन में क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा मन्द थी। उन का व्यवहार मद, सुखावह था । वे आलीन, गुप्त, चेष्टारत थे । वे भद्र, विनीत, अल्पेच्छ, संग्रह नहीं रखनेवाले, भवनों की आकृति के वृक्षों के भीतर बसनेवाले और ईच्छानुसार काम भोग भोगनेवाले थे । सूत्र-३५
भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने समय बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है ? हे गौतम ! तीन दिन के बाद होती है । कल्पवृक्षों से प्राप्त पृथ्वी तथा पुष्प-फल का आहार करते हैं । उस पृथ्वी का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! गुड़, खांड़, शक्कर, मत्स्यंडिका, राब, पर्पट, मोदक, मृणाल, पुष्पोत्तर, पद्मोत्तर, विजया, महाविजया, आकाशिका, आदर्शिका, आकाशफलोपमा, उपमा तथा अनुपमा, उस पृथ्वी का आस्वाद इनसे इष्टतर यावत् अधिक मनोगम्य होता है।
भगवन् ! उन पुष्पों और फलों का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! तीन समुद्र तथा हिमवान् पर्यन्त छह खंड़ के साम्राज्य के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् का भोजन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं के व्यय से निष्पन्न होता है । वह कल्याणकर, प्रशस्त वर्ण यावत् प्रशस्त स्पर्शयुक्त होता है, आस्वादनीय, विस्वादनीय, दीपनीय, दर्पणीय, मदनीय, बृंहणीय, उपचित एवं प्रह्लादनीय; ऐसे उन पुष्पों एवं फलों का आस्वाद उस भोजन से इष्टतर होता है। सूत्र - ३६
भगवन् ! वे मनुष्य वैसा आहार का सेवन करते हुए कहाँ निवास करते हैं ? हे गौतम ! वे मनुष्य वृक्ष-रूप घरों में निवास करते हैं । उन वृक्षों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! वे वृक्ष कूट, प्रेक्षागृह, छत्र, स्तूप, तोरण, गोपूर, वेदिका, चोप्फाल, अट्टालिका, प्रासाद, हर्म्य, हवेलियाँ, गवाक्ष, वालाग्रपोतिका तथा वलभीगृह सदृश संस्थान -संस्थित हैं । इस भरतक्षेत्र में और भी बहुत से ऐसे वृक्ष हैं, जिनके आकार उत्तम, विशिष्ट भवनों जैसे हैं, जो सुखप्रद शीतल छाया युक्त हैं । सूत्र-३७
भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में क्या घर होते हैं? क्या गेहापण-बाजार होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। उन मनुष्यों के वृक्ष ही घर होते हैं । क्या उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम यावत् सन्निवेश होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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