Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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सललिय गयविक्कमो भयवं ॥ १ ॥ नमिऊण असुर सुंर गरूल भुयेंग परिवदिए
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचरी मुम्ने श्री अमोलक ऋषिजी +
रिक कारण मे भूतकाल की क्रिगा को वर्तमान कालवाची जयति शब्द के प्रयोग से बतलाइ है जिलेश्वर की भक्तिवाले भव्य जीवों ज्ञानादि में प्रवृत्ति करते हुए रागादि का जय करते हैं. कहा है किमताई जिनवराणं खिपति पुव्वसंचिया कम्मा । आयीरय णमोक्कारे विजा मंताय सिज्झति ॥ १ ॥ अर्थात् जिनेश्वर की भक्ति करने से पूर्व जन्मके संचित कर्मों का क्षय होता है, और आचार्य को नमस्कार करने से विद्या मंत्र वगैरह सिद्ध होते हैं इसलिये जयति शब्द का यहां पर प्रयोग कीया है. अथवा जिनेश्वर ने अ अपने सर्वाधिक गुणों के सुरासुर मानयादि भव्यगणोंको जीतकर अपने भक्त बनाय हैं वे भव्यों जिनेश्वर की सदैव भक्ति करते हैं, इस से भा जी शब्द का प्रयोग कीया है, अब वे जिनेश्वर कैसे हैं। प्रश्न-एसे रागादि शत्रुको कौन जीते हैं ? उत्तर महावीर भगवंतने ऐसे रागादि शत्रुओं जीते हैं? पायादि वलिष्ट मल्लों की साथ ध्यानादि युद्ध कर उनका पराजय कीया है, इसीसे आत्माको पुनर्मव प्राप्ति से पराङ्मुख कीया है, और शिव निरुपद्रव मोक्ष के शाश्वत सुख के सम्मुख कीया है, यहां पर वीर शब्द से भगवंत अपायअपगम अतिशय अर्थत् सांसारिक दुःख भोगने से दूर दर्शाया है, और भी जिनेश्वर कैसे हैं ? नविन उत्पन्न हुए विकसायमान नलिन ( रक्तोत्पल कमल) नीलोत्पल कमल की सोपांखडी वाला कमल की समान प्रफुल्लत दीर्घ व चक्षुओं वाले और भी तरुण मदोन्मत्त अपनी
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी..
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