Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र . पूर्वपीठिका प्रश्नव्याकरणसूत्र भगवान् महावीर द्वारा अर्थतः प्रतिपादित द्वादशांगी में दसवें अंग के रूप में परिगणित है / नन्दी आदि आगमों में इसका प्रतिपाद्य जो विषय बतलाया गया है, उपलब्ध प्रश्नव्याकरण में वह वणित नहीं है / वर्तमान में यह सूत्र दो मुख्य विभागों में विभक्त है-प्रास्रवद्वार और संवरद्वार। दोनों द्वारों में पांच-पांच अध्ययन होने से कुल दस अध्ययनों में यह पूर्ण हुआ है। अतः इसका नाम 'प्रश्नव्याकरणदशा' भी कहीं कहीं देखा जाता है। प्रथम विभाग में हिंसा प्रादि पाँच आस्रवों का और दूसरे विभाग में अहिंसा आदि पांच संवरों का वर्णन किया गया है। प्रथम विभाग का प्रथम अध्ययन हिंसा है। बहुतों को ऐसी धारणा है कि हिंसा का निषेध मात्र अहिंसा है, अतएव वह निवृत्तिरूप ही है; किन्तु तथ्य इससे विपरीत है। अहिंसा के निवृत्तिपक्ष से उसका प्रवृत्तिपक्ष भी कम प्रबल नहीं है। करुणात्मक वृत्तियाँ भी अहिंसा है। हिंसा-अहिंसा की परिभाषा और उनका व्यावहारिक स्वरूप विवादास्पद रहा है। इसीलिए आगमकार हिंसा का स्वरूप-विवेचन करते समय किसी एक दृष्टिकोण से बात नहीं करते हैं। उसके अन्तरंग, बहिरंग, सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्वरूप की तथा उसके कारणों की भी मीमांसा करते हैं। प्रस्तुत प्रागम में विषय-विश्लेषण के लिए पाँच द्वारों से हिंसा का वर्णन किया गया है:हिंसा का स्वभाव, उसके स्वरूपसूचक गुणनिष्पन्न नाम, हिंसा की विधि-हिंस्य जीवों का उल्लेख, उसका फल और हिंसक व्यक्ति। इन पाँच माध्यमों से हिंसा का स्वरूप स्पष्ट कर दिया गया है। हिंसा का कोई प्रायाम छूटा नहीं है। हिंसा केबल चण्ड और रौद्र ही नहीं, क्षुद्र भी है। अनेकानेक रूप हैं और उन रूपों को प्रदर्शित करने के लिए शास्त्रकार ने उसके अनेक नामों का उल्लेख किया है / वस्तुतः परिग्रह, मैथुन, अदत्तादान और असत्य भी हिंसाकारक एवं हिंसाजन्य हैं, तथापि सरलता से समझाने के लिए इन्हें पृथक्-पृथक् रूप में परिभाषित किया गया है। अतएव प्रानवद्वार प्रस्तुत प्रागम में पाँच बतलाए गए हैं और इनका हृदयग्राही विशद वर्णन किया गया है। आस्रव और संवर सात तत्त्वों या नौ पदार्थों में परिगणित हैं। अध्यात्मदृष्टि मुमुक्षु जनों के लिए इनका बोध होना आवश्यक ही नहीं, सफल साधना के लिए अनिवार्य भी है / आस्रव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org