Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 280
________________ अकल्पनीय-अनाचरणीय]. [241 वेदिका-चारों ओर का परिकर है / तदनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान् और सुनिर्मित स्कन्ध (तना) है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएँ हैं। अनित्यता, अशरणता आदि भावनाएँ इस संवरवृक्ष की त्वचा है / धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंकुरों को यह धारण करने वाला है। बहसंख्यक उत्तरगुण रूपी फलों से यह समृद्ध है। यह शील के सौरभ से सम्पन्न है और वह सौरभ ऐहिक फल की वांछा से रहित सत्प्रवृतिरूप है / यह संवरवृक्ष अनास्रव-कर्मास्रव के निरोध रूप फलों वाला है / मोक्ष ही इसका उत्तम बीजसार-मीजी है। यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूलिका के समान मोक्ष-कर्मक्षय के निर्लोभतास्वरूप मार्ग का शिखर है। इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवरद्वार रूपी जो वृक्ष है, वह अन्तिम संवरद्वार है / विवेचन–अपरिग्रह पाँच संवरद्वारों में अन्तिम संवरद्वार है / सूत्रकार ने इस संवरद्वार को वृक्ष का रूपक देकर प्रालंकारिक भाषा में सुन्दर रूप से वर्णित किया है। वर्णन का आशय मूलार्थ से ही समझा जा सकता है। अकल्पनीय-अनाचरणीय १५६.-जत्थ ण कप्पइ गामागर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमगयं च किचि अप्पं वा बहुं वा अणुवा थूलं वा तसथावरकायदव्वजायं मणसा वि परिघेत्तु, ण हिरण्णसुवण्णखेत्तवत्थु, ण दासी-दास-भयग-पेस-हय-गय-गवेलगं ब, ण जाण-जुम्ग-सयणासणाइ, ण छत्तगं, ण कुडिया, ण उवाणहा, ण पेहुण-बीयण-तालियंटगा, ण यावि अय-तउय-तंब-सीसग-कंस-रयय-जायरूव-मणिमुत्ताहारपुडग-संख-दंत-मणि-सिंग-सेल-काय-वरचेल-चम्मपत्ताई महरिहाई, परस्स अज्झोववाय-लोहजणणाई परियड्ढेउं गुणवओ, ण यावि पुप्फ-फल-कंद-मूलाइयाई सणसत्तरसाइं सवधण्णाई तिहि वि जोगेहि परिघेत्तुं ओसह-भेसज्ज-भोयणट्टयाए संजएणं / कि कारणं? . अपरिमियणाणदंसणधरेहि सोल-गुण-विणय-तव-संजमणायगेहि तित्थयरेहि सव्वजगज्जीवबच्छलेहिं तिलोयमहिहिं जिणरिवेहि एस जोणी जंगमाणं दिट्ठा। ण कप्पइ जोणिसमुच्छेओ त्ति तेण वज्जंति समणसीहा। १५६-ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो, चाहे वह अल्प मूल्य वाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो अथवा बड़ा हो, वह भले त्रसकाय-शंख आदि हो या स्थावरकाय --रत्न आदि हो, उस द्रव्यसमूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, अर्थात् उसे ग्रहण करने की इच्छा करना भी योग्य नहीं है। चांदी, सोना, क्षेत्र (खुली भूमि), वास्तु (मकान-दुकान आदि) भी ग्रहण करना नहीं कल्पता / दासी, दास, भृत्य-नियत वृत्ति पाने वाला सेवक, प्रेष्य-संदेश ले जाने वाला सेवक, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। यान-रथ, गाड़ी आदि, युग्य–डोली श्रादि, शयन आदि और छत्र-छाता आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न जूता, न मोरपीछी, न वीजना-पंखा और तालवन्त--ताड़ का पंखा-ग्रहण करना कल्पता है / लोहा, रांगा, तांबा, सीसा, कांसा, चांदी, सोना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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