Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 240] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 5 (32) रत्नाधिक के आसन से ऊँचे प्रासन पर बैठना / (33) रत्नाधिक के कुछ कहने पर अपने आसन पर बैठे-बैठे ही उत्तर देना / इन अाशातनामों से मोक्षमार्ग की विराधना होती है, अतएव ये वर्जनीय हैं। 33 सुरेन्द्र बत्तीस हैं-भवनपतियों के 20, वैमानिकों के 10 तथा ज्योतिष्कों के दोचन्द्रमा और सूर्य / (इनमें एक नरेन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती को सम्मिलित कर देने से 33 संख्या की पूत्ति हो जाती है / ') (उल्लिखित) एक से प्रारम्भ करके तीन अधिक तीस अर्थात् तेतीस संख्या हो जाती है / ले पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों में, जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित हैं तथा शाश्वत अवस्थित और सत्य हैं, किसी प्रकार की शंका या कांक्षा न करके हिंसा आदि से निवृत्ति करनी चाहिए एवं विशिष्ट एकाग्रता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार निदान-नियाणा से रहित होकर, ऋद्धि आदि के गौरव-अभिमान से दूर रह कर, अलुब्ध-निर्लोभ होकर तथा मूढता त्याग कर जो अपने मन, वचन और काय को संवृत करता हुआ श्रद्धा करता है, वही वास्तव में साधु है / विवेचन-मूल पाठ स्पष्ट है और आवश्यकतानुसार उसका विवेचन अर्थ में साथ ही कर दिया गया है / इस पाठ का आशय यही है कि वीतराग देव ने जो भी हेय, उपादेय या ज्ञेय तत्त्वों का प्रतिपादन किया है, वे सब सत्य हैं, उनमें शंका-कांक्षा करने का कोई कारण नहीं है / अतएव हेय को त्याग कर, उपादेय को ग्रहण करके और ज्ञेय को जान कर विवेक पूर्वक- अमृत प्रवृत्ति करनी चाहिए। साधु को इन्द्रादि पद की या भविष्य के भोगादि की अकांक्षा से रहित, निरभिमान, अलोलुप और संवरमय मन, वचन, काय वाला होना चाहिए। धर्म-वृक्ष का रूपक 155 -जो सो वीरवर-वयण-विरइ-पवित्थरबहुविहप्पयारो सम्मत्त-विसुद्धमूलो धिइकंदो विणयवेइओ णिग्गय-तेल्लोक्क-विउलजस-णिविड-पीण-पवरसुजायखंधो पंचमहन्वय-विसालसालो भावणतयंत-ज्झाण-सुहजोग-णाणपल्लववरंकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सील-सुगंधो अणण्हवफलो पुणो य मोक्खवरबीजसारो मंदरगिरि-सिहर-चूलिआ इव इमस्स मोक्खधर-मुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवरघर-पायवो चरिम संवरदारं। १५५–श्रीवीरवर–महावीर भगवान् के वचन--प्रादेश से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर-पादप अर्थात् अपरिग्रह नामक अन्तिम संवरद्वार बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध-निर्दोष मूल है / धृति-चित्त की स्थिरता इसका कन्द है / विनय इसकी 1. "तित्तोसा पासायणा' के पश्चात् 'सूरिदा' पाठ पाया है। टीकाकार अभयदेव और देवविमलसूरि को भी यही पाठक्रम अभीष्ट है / सुरेन्द्रों की संख्या बत्तीस बतलाई गई है। तेतीस के बाद बत्तीससंख्यक सुरेन्द्रों का कथन असंगत मान कर किसी-किसी संस्करण में 'सुरिदा' यासातनामों से पहले रख दिया है और किसी ने 'नरेन्द्र' को सुरेन्द्रों के साथ जोड़ कर तेतीस की संख्या को पूत्ति की है। बत्तीस सुरेन्द्रों में भवनपतियों के इन्द्रों की गणना की गई है, पर ब्यन्तरेन्द्र नहीं गिने गए। -तत्त्व केवलिगम्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org