Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 307
________________ परिशिष्ट (3) कथाएँ सीता मिथिला नगरी के राजा जनक थे। उनकी रानी का नाम विदेहा था। उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्र का नाम भामंडल और पूत्री का नाम जानकी-सीता था। सीता अत्यन्त रूपवती और समस्त कलाओं में पारंगत थी। जब वह विवाहयोग्य हुई तो राजा जनक ने स्वयंवरमंडप बनवाया और देश-विदेशों के राजाओं, राजकुमारों और विद्याधरों को स्वयंवर के लिए आमन्त्रित किया। राजा जनक ने प्रतिज्ञा की थी कि जो स्वयंवरमंडप में स्थापित देवाधिष्ठित धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा, उसी के गले में सीता वरमाला डालेगी। ठीक समय पर राजा, राजकुमार और विद्याधर या पहुँचे। अयोध्यापति राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र भी अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ उस स्वयंवर में पाये। महाराजा जनक ने सभी समागत राजाओं को सम्बोधित करते हुये कहा--'महानुभावो ! आपने मेरे आमंत्रण पर यहाँ पधारने का कष्ट किया है, इसके लिए धन्यवाद ! मेरी यह प्रतिज्ञा है कि जो वीर इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी के गले में सीता वरमाला डालेगी।' __ यह सुनकर सभी समागत राजा, राजकुमार, और विद्याधर बहुत प्रसन्न हुए, सब को अपनी सफलता की आशा थी। सब विद्याधरों और राजाओं ने बारी-बारी से अपनी ताकत आजमाई, लेकिन धनुष किसी से टस से मस नहीं हुआ। राजा जनक ने निराश होकर खेदपूर्वक जब सभी क्षत्रियों को फटकारा कि क्या यह पृथ्वी वीरशून्य हो गई है ! तभी लक्ष्मण के कहने पर रामचन्द्रजी उस धनुष को चढ़ाने के लिए उठे / सभी राजा आदि आश्चर्यचकित थे। रामचन्द्रजी ने धनुष के पास पहुँचकर पंचपरमेष्ठी का ध्यान / धनुष का अधिष्ठायक देव उसके प्रभाव से शान्त हो गया. तभी श्री रामचन्द्रजी ने सबके देखते ही देखते क्षणभर में धनुष को उठा लिया और झट से उस पर बाण चढ़ा दिया, सभी ने जयनाद किया। सीता ने श्रीरामचन्द्रजी के गले में वरमाला डाल दी। विधिपूर्वक दोनों का पाणिग्रहण हो गया। विवाह के बाद श्रीरामचन्द्रजी सीता को लेकर अयोध्या आये / सारी अयोध्या में खुशियाँ मनाई गई। अनेक मंगलाचार हुए। इस तरह कुछ समय प्रानन्दोल्लास में व्यतीत हुआ। एक दिन राजा दशरथ के मन में इच्छा हुई कि रामचन्द्र को राज्याभिषिक्त करके मैं अब त्यागी मुनि बन जाऊँ / परन्तु होनहार बलवान् है। जब रामचन्द्रजी की विमाता कैकेयी ने यह सुना तो सोचा कि राजा अगर दीक्षा लेंगे तो मेरा पुत्र भरत भी साथ ही दीक्षा ले लेगा। अत: भरत को दीक्षा देने से रोकने के लिए उसने राजा दशरथ को युद्ध में अपने द्वारा की हुई सहायता के फलस्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359