Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 315
________________ 276] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : कथाएँ हिरण्यनाभ के एक बड़े भाई थे-रैवत / उनके रैवती, रामा, सीमा और बन्धुमती नाम की चार कन्याएँ थीं। रैवत ने सांसारिक मोहजाल को छोड़ कर स्व-पर-कल्याण के हेतु अपने पिता के साथ ही बाईसवें तीर्थंकर श्रीअरिष्टनेमि के चरणों में जैनेन्द्री मुनिदीक्षा धारण कर ली थी। वे दीक्षा लेने से पहले अपनी उक्त चारों पुत्रियों का विवाह बलराम के साथ करने के लिए कह गए थे। इधर पद्मावती के स्वयंवर में बड़े-बड़े राजा महाराजा पाए हुए थे। वे सब युद्ध कुशल और तेजस्वी थे। पद्मावती ने उन सब राजाओं को छोड़कर श्रीकृष्ण के गले में वरमाला डाल दी। इससे नीतिपालक सज्जन राजा तो अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहने लगे---"विचारशील कन्या ने योग्य वर चना है।" किन्तु जो दर्ब द्वि, अविवेकी और अभिमानी थे, वे अपने बल और ऐश्वर्य के मद में आकर श्रीकृष्ण से युद्ध करने को प्रस्तुत हो गए। उन्होंने वहाँ उपस्थित राजाओं को भड़काया..."श्रो क्षत्रियवीर राजकुमारो ! तुम्हारे देखते ही देखते यह ग्वाला स्त्री-रत्न ले जा रहा है / उत्तम वस्तु राजारों के ही भोगने योग्य होती है। अत: देखते क्या हो ! उठो, सब मिल कर इससे लड़ो और यह कन्या-रत्न छुड़ा लो।" इस प्रकार उत्तेजित किए गए अविवेकी राजा मिल कर श्रीकृष्ण से लड़ने लगे / घोर युद्ध छिड़ गया / श्रीकृष्ण और बलराम सिंहनाद करते हुए निर्भीक होकर शत्रुराजाओं से युद्ध करने लगे। वे जिधर पहुँचते उधर ही रणक्षेत्र योद्धाओं से खाली हो जाता। रणभूमि में खलबली और भगदड़ मच गई। जल्दी भागो, प्राण बचाओ! ये मनुष्य नहीं, कोई देव या दानव प्रतीत होते हैं / ये तो हमें शस्त्र चलाने का अवसर ही नहीं देते / अभी यहाँ और पलक मारते ही और कहीं पहुँच जाते हैं। इस प्रकार भय और आतंक से विह्वल होकर चिल्लाते हुए बहुत से प्राण बचा कर भागे / जो थोड़े से अभिमानी वहाँ डटे रहे, वे यमलोक पहुँचा दिये गए / इस प्रकार बहुत शीघ्र ही उन्हें अनीति का फल मिल गया, वहाँ शान्ति हो गई। अन्त में रैवती, रामा अादि (हिरण्यनाभ के बड़े भाई रैवत की) चारों कन्याओं का विवाह बड़ी धूमधाम से बलरामजी के साथ हुआ और पद्मावती का श्रीकृष्णजी के साथ / इस तरह वैवाहिक मंगलकार्य सम्पन्न होने पर बलराम और श्रीकृष्ण अपनी पत्तियों को साथ लेकर द्वारिका नगरी में पहँचे। जहाँ पर अनेक प्रकार के प्रानन्दोत्सव मनाये गए। तारा किष्किन्धा नगर में वानरवंशी विद्याधर आदित्य राज्य करता था। उसके दो पत्र थे--बाली और सुग्रीव / एक दिन अवसर देख कर बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव को अपना राज्य सौंप दिया और स्वयं मुनि-दीक्षा लेकर घोर तपस्या करने लगा / उसने चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन कर मोक्ष प्राप्त किया। सुग्रीव की पत्नी का नाम तारा था / वह अत्यन्त रूपवती और पतिव्रता थी। एक दिन खेचराधिपति साहसगति नाम का विद्याधर तारा का रूप-लावण्य देख उस पर आसक्त हो गया / वह तारा को पाने के लिये विद्या के बल से सुग्रीव का रूप बनाकर तारा के महल में पहुँच गया। तारा ने कुछ चिह्नों से जान लिया कि मेरे पति का बनावटी रूप धारण करके यह कोई विद्याधर पाया है। अतः यह बात उसने अपने पुत्रों से तथा जाम्बवान आदि मंत्रियों से कही। वे भी दोनों सुग्रीव को देखकर विस्मय में पड़ गए / उन्हें भी असली और नकली सुग्रीव का पता न चला, अतएव उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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