Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ रुक्मिणी] [273 बनाया और नगरी के द्वार, कोट और अटारियों को अपने पंजों की मार से भूमिसात कर दिया। बड़े-बड़े विशाल भवनों और प्रासादों के शिखर गिरा दिये। सारी राजधानी (नगरी) में हाहाकार मच गया। पद्मनाभ राजा भय से कांपने लगा और श्रीकृष्ण के चरणों में आ गिरा तथा प्रादरपूर्वक द्रौपदी को उन्हें सौंप दिया। श्रीकृष्णजी ने उसे क्षमा किया और अभयदान दिया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण द्रौपदी और पांचों पांडवों को लेकर जयध्वनि एवं आनन्दोल्लास के साथ द्वारिका पहुँचे। इस प्रकार राजा पद्मनाभ की कामवासना-मैथुन-संज्ञा–के कारण महाभारत काल में द्रौपदी के लिये भयंकर संग्राम हुआ। रुक्मिणी ___ कुडिनपुर नगरी के राजा भीष्म के दो संतान थीं-एक पुत्र और एक पुत्री / पुत्र का नाम रुक्मो था और पुत्री का नाम था-रुक्मिणी। एक दिन घमते-घामते नारदजी द्वारिका पहुँचे और श्रीकृष्ण की राजसभा में प्रविष्ट हए / उनके आते ही श्रीकृष्ण अपने प्रासन से उठकर नारदजी के सम्मुख गए और प्रणाम करके उन्हें विनयपूर्वक आसन पर बिठाया। नारदजी ने कुशलमंगल पूछ कर श्रीकृष्ण के अन्तःपुर में गमन किया। वहाँ सत्यभामा अपने गृहकार्य में व्यस्त थी / अतः वह नारदजी को आवभगत भलीभांति न कर सकी। नारदजी ने उसे अपना अपमान समझा और गुस्से में आ कर प्रतिज्ञा की--"इस सत्यभामा पर सौत लाकर यदि मैं अपने अपमान का मजा न चखा हूँ तो मेरा नाम नारद ही क्या ?" तत्काल वे वहाँ से रवाना हुये और कुडिनपुर के राजा भीष्म की राजसभा में पहुंचे। राजा भीष्म और उनके पुत्र रुक्म ने उनको बहुत सम्मान दिया, फिर उन्होंने हाथ जोड़ कर का प्रयोजन पूछा। नारदजी ने कहा-"हम भगवद्-भजन करते हुये भगवद्भक्तों के यहाँ धूमते-घामते पहुँच जाते हैं।" इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् नारदजी अन्तःपुर में पहुँचे / रानियों ने उनका सविनय सत्कार किया। रुक्मिणी ने भी उनके चरणों में प्रणाम किया। नारदजी ने उसे आशीर्वाद दिया— “कृष्ण की पटरानी हो।" इस पर रुक्मिणी की बुमा ने साश्चर्य पूछा-''मुनिवर ! आपने इसे यह आशीर्वाद कैसे दिया ? और श्रीकृष्ण कौन हैं ? उनमें क्या-क्या गुण हैं ?" इस प्रकार पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण के वैभव और गुणों का वर्णन करके रुक्मिणी के मन में कृष्ण के प्रति अनुराग पैदा कर दिया। नारदजी भी अपनी सफलता की सम्भावना से हर्षित हो उठे। नारदजी ने यहाँ से चल कर पहाड़ की चोटी पर एकान्त में बैठ कर एक पट पर रुक्मिणी का सुन्दर चित्र बनाया। उसे लेकर वे श्रीकृष्ण के पास पहुँचे और उन्हें वह दिखाया। चित्र इतना सजीव था कि श्रीकृष्ण देखते ही भावविभोर हो गए और रुक्मिणी के त उनका आकर्षण जाग उठा / वे पूछने लगे-"नारदजी ! यह बताइये, यह कोई देवी है, किन्नरी है ? या मानूषी ? यदि यह मानुषी है तो वह पुरुष धन्य है, जिसे इसके करस्पर्श का अधिकार प्राप्त होगा।" नारदजी मुसकरा कर बोले-“कृष्ण ! वह धन्य पुरुष तो तुम ही हो।" नारदजी ने सारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org