Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 287
________________ 248] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 5 चोलपट्टक-कमर में पहनने का वस्त्र / मुखानन्तक-मुखवस्त्रिका / ये उपकरण संयम-निर्वाह के अर्थ ही साधु ग्रहण करते और उपयोग में लाते हैं, ममत्व से प्रेरित होकर नहीं, अतएव ये परिग्रह में सम्मिलित नहीं हैं / पागम में उल्लेख है जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुछणं / तंपि संजम-लज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य / / न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा / मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इन वुत्तं महेसिणा / / तात्पर्य यह है कि मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन आदि उपकरण ग्रहण करते हैं, वे मात्र संयम एवं लज्जा के लिए ही ग्रहण करते हैं और उनका परिभोग करते हैं। भगवान् महावीर ने उन उपकरणों को परिग्रह नहीं कहा है। क्योंकि परिग्रह तो मूर्छा-ममता है / महर्षि प्रभु महावीर का यह कथन है / - इस आगम-कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि गृहीत उपकरणों के प्रति यदि ममत्वभाव उत्पन्न हो जाए तो वही उपकरण परिग्रह बन जाते हैं। इस भाव को प्रकट करने के लिए प्रस्तुत पाठ में भी रागदोसरहियं परिहरितव्यं अर्थात् राग और द्वेष से रहित होकर उपयोग करना चाहिए, यह उल्लेख कर दिया गया है। निर्ग्रन्थों का प्रान्तरिक स्वरूप १६२.--एवं से संजए विमुत्ते णिस्संगे णिप्परिग्गहरुई जिम्ममे णिणेहबंधणे सव्वपावविरए वासोचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिमुत्तालेठ्ठकंचणे समे य माणावमाणणाए समियरए समियरागदोसे समिए समिइसु सम्मदिट्ठी समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणे, सुयधारए उज्जुए संजए सुसाहू, सरणं सव्वभूयाणं सव्वजगवच्छले सच्चभासए य संसारंतट्टिए य संसारसमुच्छिण्णे सययं मरणाणुपारए, पारगे य सन्वेसि संसयाणं पक्ष्यणमायाहि अहि अटुकम्म-गंठी-विमोयगे, अट्ठमय-महणे ससमयकुसले य भवइ सुहदुहणिदिवसेसे अभितरबाहिरम्मि सया तवोवहाणम्मि सुठ्ठज्जुए खंते दंते य हियणिरए ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणा-समिए उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणजल्ल-परिट्ठावणियासमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी चाई लज्जू धण्णे तवस्सो खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अबहिल्लेस्से अममे अकिंचणे छिण्णगंथे णिरुवलेवे। 162 -इस प्रकार के प्राचार का परिपालन करने के कारण वह साधु संयमवान्, विमुक्त--- धन-धान्यादि का त्यागी, निःसंग-आसक्ति से रहित, निष्परिग्रहरुचि-अपरिग्रह में रुचि वाला, निर्मम-ममता से रहित, निःस्नेहबन्धन-स्नेह के बन्धन से मुक्त, सर्वपापविरत-समस्त पापों से निवृत्त, वासी-चन्दनकल्प अर्थात् उपकारक और अपकारक के प्रति समान भावना वाला, तृण, मणि, मुक्ता और मिट्टी के ढेले को समान मानने वाला अर्थात् अल्पमूल्य या बहुमूल्य पदार्थों की समान रूप से उपेक्षा करने वाला, सन्मान और अपमान में समता का धारक, शमितरज-पाप रूपी रज को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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