Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 178] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 1 की प्रवृत्ति से भावित होता है। तथा शबलता (मलीनता) से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षत-- निरतिचार चारित्र की भावना ने युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है—मोक्ष कां साधक होता है। द्वितीय भावना : मनःसमिति ११४–बिइयं च मणेण पावएणं पावगं अहम्मियं दारुणं णिस्संसं वह-बंध-परिकिलेसबहुलं भय-मरण-परिकिलेससंकिलिलैंण कयावि मणेण पावएणं पावर्ग किचि वि झायध्वं / एवं मणसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिणिवणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू / ११४-दूसरी भावना मनःसमिति है। पापमय, अधार्मिक-धर्मविरोधी, दारुण-भयानक, नशंस–निर्दयतापूर्ण, वध, बन्ध और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं क्लेश से संक्लिष्ट-- मलीन ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार (के आचरण) से--- मनःसमिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित-वासित होती है तथा निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है। तृतीय भावना : वचनसमिति ११५–तइयं च वईए पावियाए पावगं ण किंचि वि भासियच्वं / एवं वइ-समिति-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिवणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। ११५---अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त-सावध वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की वाक्समिति (भाषासमिति) के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है-मोक्ष का साधक होता है / चतुर्थ भावना आहारेषणासमिति ११६-चउत्थं आहारएसणाय सुद्ध उंछं गवेसियत्वं अण्णाए अगढिए अदुठे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयण-घडण-करण-चरिय-विणय-गुण-जोग-संपओगजुत्ते भिवखू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरियं उंछं घेत्तूण आगओ गुरुजणस्स पासं गमणागमणाइयारे पडिक्कमणपडिक्कते आलोयणदायणं य दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिट्ठस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च अप्पमत्तो पुणरवि अणेसणाए पयओ पडिक्कमित्ता पसंते आसीणसुहणिसण्णे मुहुत्तमित्तं च झाणसुहजोगणाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगणिज्जरमणे पवयणवच्छलभावियमणे उदिऊण य पहट्टतुठे जहारायणियं णिमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविठे। ___ संपमज्जिऊण ससीसं कायं तहा करयलं, अमुच्छिए अगिद्ध अगढिए अगरहिए अणज्झोववष्णे अणाइले अलुद्ध अणत्तट्टिए असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडियं आलोयभायणे जयं पयत्तण ववगय-संजोग-मणिगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायाणिमित्तं संजम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org