Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्यमहावत की पाँच भावनाएँ] अध्यात्मवचन--जिस अभिप्राय को कोई छिपाना चाहता है, फिर भी अकस्मात् उस अभिप्राय को प्रकट कर देने वाला वचन / इस दस प्रकार के सत्य का, बारह प्रकार की भाषा का और सोलह प्रकार के वचनों का संयमी पुरुष को तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के अनुसार, अवसर के अनुकूल प्रयोग करना चाहिए। जिससे किसी को पीड़ा उत्पन्न न हो---जो हिंसा का कारण न बने / सत्य महावत का सुफल १२१-इमं च अलिय-पिसुण-फरुस-कडुय-चवलवयण-परिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभई सुद्ध जयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सम्वदुक्खपावाणं विउसमणं / १२१–अलीक-असत्य, पिशुन-चुगली, परुष-कठोर, कटु-कटुक और चपल-चंचलतायुक्त वचनों से (जो असत्य के रूप हैं) बचाव के लिए तीर्थंकर भगवान् ने यह प्रवचन समीचीन रूप से प्रतिपादित किया है / यह भगवत्प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुभ भावना से युक्त है, भविष्य में श्रेयस्कर है, शुद्ध-निर्दोष है, न्यायसंगत है, मुक्ति का सीधा मार्ग है, सर्वोत्कृष्ट है तथा समस्त दुःखों और पापों को पूरी तरह उपशान्त नष्ट करने वाला है / सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ प्रथम भावना-अनुवीचिभाषण १२२---तस्स इमा पंच भावणाओ बिइयस्स वयस्स अलियवयणस्स धेरमण-परिरक्खणट्टयाए / पढम-सोऊण संवरलैं परमट्ठ सुठु जाणिऊणं ण वेगियं ण तुरियं ण चवलं ण कडुयं ण फरुसं ण साहसं ग य परस्स पीडाकरं सावज्ज, सच्चं च हियं च मियं च गाहगं च सुद्ध' संगयमकाहलं च समिक्खियं संजएण कालम्मि य वत्तव्वं / एवं अणुवीइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपुण्णो / . १२२--दूसरे व्रत अर्थात् सत्यमहावत की ये-आगे कही जा रही पाँच भावनाएँ हैं, जो असत्य वचन के विरमण की रक्षा के लिए हैं अर्थात् इन पाँच भावनाओं का विचारपूर्वक पालन करने से असत्य-विरमणरूप सत्य महाव्रत की पूरी तरह रक्षा होती है। इन पाँच भावनाओं में प्रथम अनुवीचिभाषण है। सद्गुरु के निकट सत्यव्रत रूप संवर के अर्थ-आशय को सुन कर एवं उसके शुद्ध परमार्थ-रहस्य को सम्यक् प्रकार से जानकर जल्दी-जल्दी सोच-विचार किए विना नहीं बोलना चाहिए, अर्थात् कटुक वचन नहीं बोलना चाहिए, शब्द से कठोर वचन नहीं बोलना चाहिए, चपलतापूर्वक नहीं बोलना चाहिए, विचारे विना सहसा नहीं बोलना चाहिए, पर को पीड़ा पैदा करने वाला एवं सावद्य---पापयुक्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए। किन्तु सत्य, हितकारी, परिमित, ग्राहक-विवक्षित अर्थ का बोध कराने वाला, शुद्ध—निर्दोष, संगत-युक्तियुक्त एवं पूर्वापर-अविरोधी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org