Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 214] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 4 प्रदान करने वाला है / उत्तम मुनियों द्वारा सुरक्षित है, सम्यक् प्रकार से आचरित है और उपदिष्ट है / श्रेष्ठ मुनियों महापुरुषों द्वारा जो धीर, शूरवीर और धार्मिक धैर्यशाली हैं, सदा अर्थात् कुमार आदि अवस्थाओं में भी विशद्ध रूप से पाला गया है। यह कल्याण का कारण है। भव्यजनों द्वारा इसका श्राराधन-पालन किया गया है। यह शंकारहित है अर्थात् ब्रह्मचारी पुरुष विषयों के प्रति निस्पृह होने से लोगों के लिए शंकनीय नहीं होते- उन पर कोई शंका नहीं करता। अशंकनीय होने से ब्रह्मचारी निर्भीक रहता है उसे किसी से भय नहीं होता है। यह व्रत निस्सारता से रहित-शुद्ध तंदुल के समान है। यह खेद से रहित और रागादि के लेप से रहित है। चित्त की शान्ति का स्थल है और नियमतः अविचल है / यह तप और संयम का मूलाधार--नींव है / पाँच महाव्रतों में विशेष रूप से सुरक्षित, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से गुप्त (रक्षित) है। रक्षा के लिए उत्तम ध्यान रूप सुनिर्मित कपाट वाला तथा अध्यात्म-सद्भावनामय चित्त ही (ध्यान-कपाट को दृढ़ करने के लिए) लगी हुई अर्गला---प्रागल वाला है। यह व्रत दुर्गति के मार्ग को रुद्ध एवं प्राच्छादित कर देने वाला अर्थात् रोक देने वाला है और सद्गति के पथ को प्रदर्शित करने वाला है। यह ब्रह्मचर्यव्रत लोक में उत्तम है। यह व्रत कमलों से सुशोभित सर (स्वतः बना तालाब) और तडाग (पुरुषों द्वारा निर्मित तालाब) के समान (मनोहर) धर्म की पाल के समान है, अर्थात् धर्म की रक्षा करने वाला है। किसी महाशकट के पहियों के प्रारों के लिए नाभि के समान है, अर्थात् धर्म-चारित्र का आधार है-ब्रह्मचर्य के सहारे ही क्षमा आदि धर्म टिके हुए हैं / यह किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है, अर्थात् जैसे विशाल वृक्ष की शाखाएँ, प्रशाखाएँ, टहनियाँ, पत्ते, पुष्प, फल आदि का आधार स्कन्ध होता है, उसी प्रकार समस्त प्रकार के धर्मों का आधार ब्रह्मचर्य है। यह महानगर के प्राकार—परकोटा के कपाट की अर्गला के समान है / डोरी से बँधे इन्द्रध्वज के सदृश है। अनेक निर्मल गुणों से व्याप्त है। (यह ऐसा आधारभूत व्रत है जिसके भग्न होने पर सहसा एकदम सब विनय, शील, तप और गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह संभग्न हो जाता है, दही की तरह मथित हो जाता है, आटे की भाँति चूर्ण-चूरा-चूरा हो जाता है, काँटे लगे शरीर की तरह शल्ययुक्त हो जाता है, पर्वत से लुढ़की शिला के समान लुढ़का हुआ-गिरा हुआ, चीरी या तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित हो जाता है तथा दुरवस्था को प्राप्त और अग्नि द्वारा दग्ध होकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है / वह ब्रह्मचर्य भगवान् है—अतिशयसम्पन्न है / विवेचन-शास्त्रकार ने प्रस्तुत पाठ में प्रभावशाली शब्दों में ब्रह्मचर्य की महिमा का वास्तविक निरूपण किया है / उसे तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व एवं विनय का मूल कहा है / इसका आशय यह है कि ब्रह्मचर्यनिष्ठ उत्तम पुरुष हो उत्तम तप आदि का पालन करने में समर्थ हो सकता है, ब्रह्मचर्य के अभाव में इन सब का उत्कृष्ट रूप से प्राराधन नहीं हो सकता। कहा है जइ ठाणी जइ मोणी, जइ झाणी वक्कली तपस्सी वा / पत्थंतो य प्रबंभ, बंभावि न रोयए मज्झ / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org