Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 261
________________ 222] [प्रश्नस्याकरणसूत्र : 1.2, अ. 4 मोह-अज्ञान की वृद्धि करने वाला, निस्सार प्रमाददोष तथा पाश्वस्थ-शिथिलाचारी साधुओं का शील- प्राचार, (जैसे निष्कारण शय्यातरपिण्ड का उपभोग आदि) और घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, शिर, हाथ, पैर और मुह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दवाना-पगचम्पी करना, परिमर्दन करना-समग्र शरीर को मलना, विलेपन करना, चूर्णवाससुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि की धूप देना- शरीर को धूपयुक्त करना, शरीर को मण्डित करना-सुशोभन बनाना, बाकुशिक कर्म करना-नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी-ठट्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वादित्र, नटों, नृत्यकारकों और जल्लों-रस्से पर खेल दिखलाने वालों और मल्लों--कुश्तीबाजों का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जो शगार का आगार हैं--शगार के स्थान हैं और जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का उपघात-पांशिक विनाश या घात--पूर्णतः विनाश होता है, ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देनी चाहिए। ब्रह्मचर्य-रक्षक नियम-- १४७–भावियन्वो भवइ य अंतरप्पा इमेहि तव-णियम-सील-जोगेहि णिच्चकालं / किते? अण्हाणग-अदंतधावण-सेय-मल-जल्लधारणं मूणवय-केसलोय-खम-दम-अचेलग-खुप्पिवासलाघव-सीउसिण-कट्टसिज्जा-भूमिणिसिज्जा-परघरपवेस-लद्धावलद्ध-माणावमाण-णिदण-दंसमसग-फास - णियम-तव-गुण-विणय-माइएहि जहा से थिरतरगं होइ बंभचेरं / इमं च अबंभचेर-विरमण-परिरक्षणट्टयाए पावयणं भगक्या सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धणेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्ख-पावाणं विउसमणं / १४७-इन त्याज्य व्यवहारों के वर्जन के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित-वासित करना चाहिए। वे व्यापार कौन-से हैं ? (वे ये हैं-) स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, स्वेद (पसीना) धारण करना, जमे हुए या इससे भिन्न मैल को धारण करना, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुञ्चन करना, क्षमा, दम-इन्द्रियनिग्रह. अचेलकता-वस्त्ररहित होना अथवा अल्प वस्त्र धारण करना, भूख-प्यास सहना, लाघव-उपधि अल्प रखना, सर्दी, गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या, भूमिनिषद्या--जमीन पर प्रासन, परगृहप्रवेश ---शय्या या भिक्षादि के लिए गृहस्थ के घर में जाना और प्राप्ति या अप्राप्ति (को समभाव से सहना), मान, अपमान, निन्दा एवं दंश-मशक का क्लेश सहन करना, नियम अर्थात् द्रव्यादि संबंधी अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय (गुरुजनों के लिए अभ्युत्थान) आदि से अन्तःकरण को भावित करना चाहिए, जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर- दृढ हो / अब्रह्म निवृत्ति (ब्रह्मचर्य) व्रत की रक्षा के लिए भगवान् महावीर ने यह प्रवचन कहा है / यह प्रवचन परलोक में फलप्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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