Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 224] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 4 ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ प्रथम भावना--विविक्त-शयनासन २४८-तस्स इमा पंच भावणाओ चउत्थवयस्स होंति अबंभचेरविरमणपरिरक्खणट्टयाए पढम--सयणासण-घर-दुवार-अंगण-आगास-गवक्ख-साल-अभिलोयण-पच्छवत्थुक-पसाहणगहाणिगावगासा, अवगासा जे य वेसियाणं, अच्छंति य जत्थ इत्थियाओ अभिक्खणं मोहदोस-रइरागवडणीओ, कहिति य कहाओ बहुविहाओ, ते वि हु वज्जणिज्जा / इत्थि-संसत्त-संकिलिङ्का, अण्णे वि य एवमाई अवगासा ते हु वज्जणिज्जा। जत्थ मणोविन्भमो वा भंगो वा भंसणा [भसंगो] वा अट्ट रुदं च हुज्ज झाणं तं तं वज्जेज्जऽवज्जभीरू अणाययणं अंतपंतवासी। __ एवमसंसत्तवास-बसहीसमिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। १४८–चतुर्थ अब्रह्मचर्य विरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पांच भावनाएँ हैं प्रथम भावना : (उनमें से) स्त्रीयुक्त स्थान का वर्जन-प्रथम भावना इस प्रकार है-शय्या, आसन, गृहद्वार (घर का दरवाजा), आँगन, आकाश-ऊपर से खुला स्थान, गवाक्ष---झरोखा, शाला--सामान रखने का कमरा आदि स्थान, अभिलोकन--बंठ कर देखने का ऊंचा स्थान, पश्चादगह-~-पिछवाड़ा पीछे का घर, प्रसाधनक-नहाने और शृंगार करने का स्थान, इत्य स्त्रीसंसक्त नारी के संसर्ग वाले होने से वर्जनीय हैं। इनके अतिरिक्त वेश्याओं के स्थान–अड्डे हैं और जहाँ स्त्रियाँ बैठती-उठती हैं और वारवार मोह, द्वेष, कामराग और स्नेहराग को वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएँ कहती हैं--- वातें करती हैं, उनका भी ब्रह्मचारी को वर्जन करना चाहिए। ऐसे स्त्री के संसर्ग के कारण संक्लिष्ट--- संक्लेशयुक्त अन्य जो भी स्थान हों, उनसे भी अलग रहना चाहिए, जैसे-जहाँ रहने से मन में विभ्रम—चंचलता उत्पन्न हो, ब्रह्मचर्य भग्न होता हो या उसका अांशिकरूप से खण्डन होता हो, जहाँ रहने से प्रार्तध्यान-रौद्रध्यान होता हो, उन-उन अनायतनों-अयोग्य स्थानों का पापभीरु--ब्रह्मचारी परित्याग करे / साधु तो ऐसे स्थान पर ठहरता है जो अन्त-प्रान्त हों अर्थात् इन्द्रियों के प्रतिकूल हो / इस प्रकार असंसक्तवास-वसति-समिति के अर्थात् स्त्रियों के संसर्ग से रहित स्थान का त्याग रूप समिति के योग से युक्त अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की मर्यादा में मन वाला तथा इन्द्रियों के विषय ग्रहण-स्वभाव से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त-सुरक्षित होता है / द्वितीय भावना-स्त्री-कथावर्जन १४९–बिइयं—णारीजणस्स मज्झे ण कहियवा कहा-विचित्ता विन्वोय-विलास-संपउत्ता हाससिंगार-लोइयकहव्व मोहजणणी, ण आवाह-विवाह-वर-कहा, इत्थीणं वा सुभग-दुग्भगकहा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org