Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 239
________________ 200] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. 2, अ. 3 यह व्रत अनेकानेक गुणों का जनक है। इसके धारण और पालन से इस लोक में भी उपकार होता है और परलोक में भी, अतएव इसे गुणव्रत भी कहा गया है / अस्तेयत्रत की आराधना से अपरिमित तृष्णा और अभिलाषा के कारण कलुषित मन का निग्रह होता है / जो द्रव्य प्राप्त है, उसका व्यय न हो जाए, इस प्रकार की इच्छा को यहाँ तृष्णा कहा गया है और अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की बलवती लालसा को महेच्छा कहा गया है / 'सुसंजमिय-मण-हत्थ-पायनियं' इस विशेषण के द्वारा शास्त्रकार ने यह सूचित किया है कि मन पर यदि सम्यक् प्रकार से नियन्त्रण कर लिया जाए, मन पूरी तरह काबू में रहे तो हाथों और पैरों की प्रवृत्ति स्वतः रुक जाती है। जिस ओर मन नहीं जाता उस ओर हाथ-पैर भी नहीं हिलते / यह सूचना साधकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। साधकों को सर्वप्रथम अपने मन को संयत बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने पर वचन और काय अनायास ही संयत हो जाते हैं। शेष पदों का अर्थ सुगम है / 130 -जत्थ य गामागर-नगर-णिगम-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-संबाह-पट्टणासमगयं च किंचि दव्वं मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-कंस-दूस-रयय-वरकणग-रयणमाई पडियं पम्हुळं विप्पणढ, ण कप्पइ कस्सइ कहेउं वा गिहिउं वा अहिरण्णसुवग्णियेण समलेठ्ठकंचणेणं अपरिग्गहसंवुडेणं लोगम्मि विहरियव्वं / १३०---इस अदत्तादानविरमण व्रत में ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, संबाध, पट्टन अथवा आश्रम (अथवा इनके अतिरिक्त किसी अन्य स्थान) में पड़ी हुई, उत्तम मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चांदी, सोना, रत्न आदि कोई भी वस्तु पड़ी होगिरी हो, कोई उसे भूल गया हो, गुमी हुई हो तो (उसके विषय में किसी को कहना अथवा स्वयं उठा लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि साधु को हिरण्य-सुवर्ण का त्यागी हो कर, पाषाण और स्वर्ण में समभाव रख कर, परिग्रह से सर्वथा रहित और सभी इन्द्रियों से संवृत-संयत होकर ही लोक में विचरना चाहिए। विवेचन–ग्राम, आकर आदि विभिन्न प्रकार की वस्तियाँ हैं, जिनका अर्थ पूर्व में लिखा जा चुका है। इन बस्तियों में से किसी भी वस्ती में और उपलक्षण से वन में या मार्ग प्रादि में कहीं कोई मूल्यवान् या अल्पमूल्य वस्तु साधु को दिखाई दे जाए तो उसके विषय में दूसरे किसी को कहना अथवा स्वयं उठा लेना योग्य नहीं है / साधु की दृष्टि ऐसी परमार्थदर्शिनी बन जाए कि वह पत्थर और सोने को समदृष्टि से देखे / उसे पूर्ण रूप से अपरिग्रही होकर विचरण करना चाहिए और अपनी सब इन्द्रियों को सदा संयममय रखना चाहिए। 131 --जं वि य हुज्जाहि दव्वजायं खलगयं खेत्तगयं रणमंतरगयं वा किचि पुप्फ-फलतयप्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सक्कराइ अप्पं च बहुं च अणुच थूलगं वा ण कप्पइ उग्गहम्मि अदिण्णंम्मि गिहिउं जे, हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गिव्हियव्वं, वज्जेयव्वो सवकालं अचियत्तघरप्पवेसो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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