Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अस्तेय व्रत की पाँच भावनाएँ। [209 पवायउस्सुगत्तं, ण डंसमसगेसु खुभियन्वं, अग्गी धूमो ण कायवो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरे कारण फासयंतो सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एगे चरिज्ज धम्म / एवं सेज्जासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिंगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। १३७-तीसरी भावना शय्या-परिकर्मवर्जन है। उसका स्वरूप इस प्रकार है—पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए / वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए / साधु जिसके उपाश्रय में निवास करे-ठहरे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए / वहाँ की भूमि यदि विषम (ऊंची-नीची) हो तो उसे सम न करे / पवनहीन स्थान को अधिक पवन वाला अथवा अधिक पवन वाले स्थान को पवनरहित-कम पवन वाला बनाने के लिए उत्सुक न हो- ऐसा करने की अभिलाषा भी न करे, डांस मच्छर आदि के विषय में क्षब्ध नहीं होना चाहिए और उन्हें हटाने के लिए धम प्रादि नहीं करना चाहिए / इस प्रकार संयम की बहुलता प्रधानता वाला, संवर की प्रधानता वाला, कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह की प्रधानता वाला, अतएव समाधि की प्रधानता वाला धैर्यवान् मुनि काय से इस व्रत का पालन करता हुआ निरन्तर प्रात्मा के ध्यान में निरत रहकर, समितियुक्त रह कर और एकाकी-रागद्वेष से रहित होकर धर्म का आचरण करे। इस प्रकार शय्यासमिति के योग से भावित अन्तरात्मा वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप-कर्म से विरत होता है और दत्त—अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है / चतुर्थ भावना-अनुज्ञात भक्तादि १३८-चउत्थं-साहारण-पिडपायलाभे सति भोत्तव्वं संजएणं समियं, ण सायसूपाहियं, ण खद्ध, ण वेगियं, ण तुरियं, ण चवलं, ण साहसं, ण य परस्स पोलाकरसावज्जं तह भोत्तव्वं जह से तइयवयं ण सीयइ / साहारणपिंडपायलाभे सुहुमं अदिण्णादाणवणियमविरमणं / एवं साहारपिंडपायलाभे समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिंगरण-करणकारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। १३८-चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है / वह इस प्रकार है---सब साधुओं के लिए साधारण सम्मिलित आहार-पानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक् प्रकार से-यतनापूर्वक खाना चाहिए / शाक और सूप की अधिकता वाला भोजन--सरस-स्वादिष्ट भोजन अधिक (या शीघ्रतापूर्वक) नहीं खाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से अन्य साधुओं को अप्रीति उत्पन्न होती है और वह भोजन अदत्त हो जाता है) / तथा बेगपूर्वक-जल्दी-जल्दी कवल निगलते हुए भी नहीं खाना चाहिए / त्वरा के साथ नहीं खाना चाहिए। चंचलतापूर्वक नहीं खाना चाहिए और न विचारविहीन होकर खाना चाहिए। जो दूसरों को पीडाजनक हो ऐसा एवं सदोष नहीं खाना चाहिए / साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो। यह अदत्तादानविरमणव्रत का पूक्ष्म-अत्यन्त रक्षा करने योग्य नियम है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org