Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 40 ] [ प्रश्नमाकरणसूत्र : भ.. 1, अ. 1 निकलते हैं। उनका मरण 'उद्वर्तन' कहलाता है / पूर्व में बतलाया जा चुका है कि नारकों का प्रायुष्य निरुपक्रम होता है / विष, शस्त्र आदि के प्रयोग से भी वह बीच में समाप्त नहीं होता, अर्थात् उनको अकालमृत्यु नहीं होती / अतएव मूल पाठ में 'पाउक्खएण' पद का प्रयोम किया मया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जब नरक का प्रायुध्य पूर्ण रूप से भोम कर क्षीण कर दिया जाता है, तभी नारक नरकयोनि से छुटकारा पाता है। मानव किसी कषाय आदि के आवेश से जब प्राविष्ट होता है तब उसमें एक प्रकार का उन्माद जागत होता है / उन्माद के कारण उसका हिताहितसम्बन्धी विवेक लुप्त हो जाता है / वह कर्तव्य-अकर्तव्य के भान को भूल जाता है। उसे यह विचार नहीं आता कि मेरी इस प्रवृत्ति का भविष्य में क्या परिणाम होगा? वह आविष्ट अवस्था में प्रकरणीय कार्य कर बैठता है और जब तक उसका आवेश कायम रहता है तब तक वह अपने उस दुष्कर्म के लिए गौरव अनुभव करता है, अपनी सराहना भी करता है। किन्तु उसके दुष्कर्म के कारण और उसके प्रेरक आन्तरिक दुर्भाव के कारण प्रगाढ़-चिकने-निकाचित कर्मों का बन्ध होता है। बन्धे हुए कर्म जब अपना फल प्रदान करने के उन्मुख होते हैं-अबाधा काल पूर्ण होने पर फल देना प्रारम्भ करते हैं तो भयंकर से भयंकर यातनाएँ उसे भोगनी पड़ती हैं। उन यातनामों का झब्दों द्वारा वर्णन होना असंभव है, तथापि जितना संभव है उतना वर्णन शास्त्रकार ने किया है। वास्तव में तो उस वर्णन को 'नारकीय यातनाओं का दिग्दर्शन' मात्र ही समझना चाहिए। स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक नारक जीव को भव-प्रत्यय अर्थात् नारक भव के निमित्त से उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान होता है। उस अवधिज्ञान से नारक अपने पूर्वभव में किए घोर पापों के लिए पश्चात्ताप करते हैं / किन्तु उस पश्चात्ताप से भी उनका छुटकारा नहीं होता। हाँ, नारकों में यदि कोई सम्यग्दृष्टि जीव हो तो वह वस्तुस्वरूप का विचार करके-कर्मफल की अनिवार्यता समझ कर नारकीय यातनाएँ समभाव से सहन करता है और अपने समभाव के कारण दुःखानुभूति को किंचित् हल्का बना सकता है। मगर मिथ्यादृष्टि तो दुःखों की प्राग के साथ-साथ पश्चात्ताप की आग में भी जलते रहते हैं। अतएव मूलपाठ में 'पच्छाणुसएण डज्झमाणा' पदों का प्रयोग किया गया है। ___ नारक जीव पुन: तदनन्तर भव में नरक में उत्पन्न नहीं होता। (देवगति में भी उत्पन्न नहीं होता,) वह तिथंच अथवा मनुष्य गति में ही वन्म लेता है / अतएव कहा गया है-'बहरे गच्छति तिरियवसहि' अर्थात् बहुत-से जीव नरक से निकल कर तिर्यंचवसति में जन्म लेते हैं। तियंचयोनि, नरकयोनि के समान एकान्त दुःखमय नहीं है। उसमें दुःखों की बहुलता के साथ किचित् सुख भी होता है / कोई-कोई तिर्यंच तो पर्याप्त सुख की मात्रा का अनुभव करते हैं, जैसे राजा-महाराजाओं के हस्ती, अश्व अथवा समृद्ध जनों द्वारा पाले हुए कुत्ता आदि / नरक से निकले हुए और तिर्यंचगति में जन्मे हुए घोर पापियों को सुख-सुविधापूर्ण तिर्यंचगति को प्राप्ति नहीं होती। पूर्वकृत कर्म वहाँ भी उन्हें चैन नहीं लेने देते। तिर्यंच होकर भी वे अतिशय दु:खों के भाजन बनते हैं। उन्हें जन्म, जरा, मरण, प्राधि-व्याधि के चक्कर में पड़ना पड़ता है। तिर्यंच प्राणी भी परस्पर में प्राधात-प्रत्याघात किया करते हैं। चूहे को देखते ही बिल्ली उस पर झपटती है, बिल्ली को देख कर कुत्ता हमला करता है, कुत्ते पर उससे अधिक बलवान् सिंह आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org