Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 138 ] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 1, अ. 4 सुरूवविज्जुमईए, रोहिणीए' य, अण्णेसु य एकमाइएसु बहवे महिलाकएसु सुव्वंति अइक्कता संगामा गामधम्ममूला अबंभसेविणो' / ____ इहलोए ताव गट्ठा, परलोए वि य गट्ठा महया मोहतिमिसंधयारे घोरे तसथावरसुहुमबायरेसु पज्जत्तमपज्जत्त-साहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु य अंडय-पोयय-जराउय-रसय-संसे इम-सम्मुच्छिम-उम्भियउक्वाइएसु य णरय-तिरिय-देव-माणुसेसु जरामरणरोगसोगबहुले पलिओवमसागरोवमाई अणाईयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरत-संसार-कतारं अणुपरियति जीवा मोहवससण्णिविट्ठा। १–सीता के लिए, द्रौपदी के लिए, रुक्मिणी के लिए, पद्मावती के लिए, तारा के लिए, काञ्चना के लिए, रक्तसुभद्रा के लिए, अहिल्या के लिए, स्वर्णगुटिका के लिए, किन्नरी के लिए, सुरूपविद्युन्मती के लिए और रोहिणी के लिए पूर्वकाल में मनुष्यों का संहार करने वाले विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित जो संग्राम हुए सुने जाते हैं, उनका मूल कारण मैथुन ही था-मैथुन सम्बन्धी वासना के कारण ये सब महायुद्ध हुए हैं। इनके अतिरिक्त महिलाओं के निमित्त से अन्य संग्राम भी हुए हैं, जो अब्रह्ममूलक थे। अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक में तो नष्ट होते ही हैं, वे परलोक में भी नष्ट होते हैं / मोहवशीभूत प्राणी पर्याप्त और अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में, अण्डज (अंडे से उत्पन्न होने वाले), पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, उद्भिज्ज और औपपातिक जीवों में, इस प्रकार नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यगति के जीवों में, अर्थात् जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाले, महामोहरूपी अंधकार से व्याप्त एवं घोर-दारुण परलोक में अनेक पल्योपमों एवं सागरोपमों जितने सुदीर्घ काल पर्यन्त नष्ट-विनष्ट होते रहते हैं-बर्वाद होते रहते हैं-दारुण दशा भोगते हैं तथा अनादि और अनन्त, दीर्घ मार्ग वाले और चार गति वाले संसार रूपी अटवी में बारबार परिभ्रमण करते रहते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्राचीनकाल में स्त्रियों के निमित्त हुए संग्रामों का उल्लेख करते हुए सीता, द्रौपदी आदि के नामों का निर्देश किया गया है। किन्तु इनके अतिरिक्त भी सैकड़ों अन्य उदाहरण इतिहास में विद्यमान हैं। परस्त्रीलम्पटता के कारण आए दिन होने वाली हत्याओं के समाचार आज भी वृत्तपत्रों में अनायास ही पढ़ने को मिलते रहते हैं। परस्त्रीगमन वास्तव में अत्यन्त अनर्थकारी पाप है। इसके कारण परस्त्रीगामी की आत्मा कलुषित होती है और उसका वर्तमान भव ही नहीं, भविष्य भी अतिशय दुःख पूर्ण बन जाता है / साथ ही अन्य निरपराध सहस्रों ही नहीं, लाखों और कभी-कभी करोड़ों मनुष्यों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। रुधिर की नदियाँ बहती हैं। देश को भारी क्षति सहनी पड़ती है। अतएव यह पाप बड़ा ही दारुण है / सूत्र में निर्दिष्ट नामों से संबद्ध कथाएँ परिशिष्ट में देखिये। 1. "रोहिणोए' पाठ ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में नहीं है, परन्तु टीका में उसका चरित दिया है। लगता है कि भूल से छूट गया है। 2. यहाँ "प्रबंभसेविगो"--पाठ श्री ज्ञान विमलसरि वाली प्रति में अधिक है। 3. "ताव गट्ठा" के स्थान पर 'णकित्ती' पाठ भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org